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भावपल्लवन

श्लोक
“यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते।
येन जातानि जीवन्ति।
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।
तद् ब्रह्मेति।”
(तैत्तिरीयोपनिषद् – ३/१)

यह श्लोक तैत्तिरीयोपनिषद् (यजुर्वेद) का एक महत्वपूर्ण अंग है, जिसमें ब्रह्म के स्वरूप और जीवन के परम सत्य की व्याख्या है। उपनिषदों का उद्देश्य मानव को उसके अस्तित्व का आधार बताना है और यह श्लोक उसी का सार प्रस्तुत करता है। इसमें कहा गया है कि समस्त प्राणी और संपूर्ण जगत जिस सत्ता से उत्पन्न होते हैं, उसी से उनका पालन-पोषण होता है और अंततः मृत्यु के पश्चात् वही सत्ता उन्हें अपने में समेट लेती है। अर्थात् ब्रह्म ही सृष्टि का आदि कारण, जीवन का आधार और अंतिम आश्रय है।

इस श्लोक के अनुसार उद्गम, स्थिति और लय यह सब कुछ केवल ब्रह्म में ही है। वही परम सत्य है; शेष सब कुछ क्षणिक और परिवर्तनशील है। आदि शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन का सार बताया है—
“ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।”

अर्थात् सम्पूर्ण जगत में यदि कोई नित्य और वास्तविक सत्ता है, तो वह केवल ब्रह्म है। संसार का दृश्य रूप—पदार्थ, घटनाएँ, सुख-दुःख, जन्म-मरण हैं। यह सब अस्थायी हैं, अतः उन्हें मिथ्या कहा गया है। जीव का स्वरूप न शरीर है, न मन, न अहंकार है; वह तो ब्रह्म का ही अंश है, जो अज्ञान से सीमित रूप में प्रकट होता है। यही सत्य यह श्लोक स्पष्ट करता है—
“सृष्टि की उत्पत्ति ब्रह्म से, स्थिति ब्रह्म पर और लय ब्रह्म में ही है।”

श्लोक का भावार्थ
“यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते” – संपूर्ण सृष्टि का मूल कारण ब्रह्म है। धरती, जल, अग्नि, वायु, आकाश, पर्वत, नदियाँ, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उसी से बने हैं और उसी पर टिके हैं। ब्रह्म न तो जड़ है और न ही सीमित, बल्कि वह चेतन, अनंत और सब जगह विद्यमान शक्ति है। विज्ञान कहता है कि हर चीज़ का एक कारण होता है, लेकिन उपनिषद् बताता है कि उन सब कारणों का अंतिम कारण ब्रह्म ही है और वही अकेला ऐसा है, जो स्वयं किसी से उत्पन्न नहीं हुआ।

“येन जातानि जीवन्ति” – उत्पत्ति के बाद जीवन का संचालन भी उसी सत्ता से संभव है। शरीर की प्राणशक्ति, अन्न, जल, वायु, सूर्य और अग्नि, यह सब उसी के रूप हैं। प्रत्येक श्वास, धड़कन और गति उसी पर निर्भर है। अतः जीवन का वास्तविक आधार और पोषक ब्रह्म ही है।

“यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति” – सृष्टि का अंत भी ब्रह्म में है। जीवनचक्र पूर्ण होने पर शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो जाता है और आत्मा भी उसी परमसत्ता में विश्राम पाती है। जैसे तरंग समुद्र से उत्पन्न होकर उसी में विलीन होती है, वैसे ही जीव का उद्गम और अंत ब्रह्म ही है। यह दृष्टि साधक को स्मरण कराती है कि मृत्यु अंत नहीं, बल्कि अपने स्रोत में वापसी है।

“तद् ब्रह्मेति” – अर्थात् सम्पूर्ण जगत का आधार, गति और अंतिम सत्य केवल ब्रह्म है। वही सृष्टि का कारण, पालनकर्ता और संहारक है। जब साधक इस सत्य को पहचानता है, तब उसका अहंकार मिट जाता है और वह अपने वास्तविक स्वरूप जो ब्रह्मस्वरूप आत्मा को जान लेता है।

दार्शनिक और वैज्ञानिक दृष्टि
आधुनिक विज्ञान बताता है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति लगभग 13.8 अरब वर्ष पूर्व बिग बैंग से हुई। एक सूक्ष्म बिंदु में निहित ऊर्जा का विस्तार होकर पदार्थ, आकाशगंगाएँ और ग्रह-नक्षत्र बने। विज्ञान यह भी मानता है कि ऊर्जा नष्ट नहीं होती, केवल रूप बदलती है। यह संरक्षण का शाश्वत नियम है।

यह उपनिषद् की प्रत्यक्ष पुष्टि नहीं, बल्कि एक दृष्टांत है कि दोनों ही विचार किसी एक गहरे स्रोत की ओर इशारा करते हैं। विज्ञान “कैसे” की खोज करता है, जबकि उपनिषद् “क्यों” और “किसके लिए” का उत्तर देता है। विज्ञान उस मूल को ऊर्जा मानता है, पर उपनिषद् उसे परम चेतना बताते हैं।

आध्यात्मिक दृष्टि
यह श्लोक मानव को सरल और आत्मीय संदेश देता है। ईश्वर ही सृष्टि का मूल और जीवन का आधार है। जैसे बालक अपने माता-पिता पर आश्रित होता है, वैसे ही हर प्राणी का पोषण ईश्वर करता है। भक्त जब यह अनुभव करता है, तो हर सांस में ईश्वर की कृपा देखता है। सुख-दुःख, लाभ-हानि सब उसी की इच्छा पर निर्भर हैं। मृत्यु भी उसके लिए भय का विषय नहीं रहती, क्योंकि यह अपने ही परम स्रोत में विश्रांति है। जैसे थका बालक माँ की गोद में शांति पाता है, वैसे ही आत्मा मृत्यु के बाद ब्रह्म में लौटकर शांति अनुभव करती है।

तत्त्वचतुष्टयी और श्लोक का संबंध
तत्त्वचतुष्टयी की विभिन्न दार्शनिक धाराओं के अनुसार इस श्लोक का भावार्थ है कि सम्पूर्ण सृष्टि का उद्गम, पालन और लय जिस परम तत्व से होता है, वही ब्रह्म है, पर विभिन्न दर्शनों ने इसे अलग-अलग रूप में व्याख्यायित किया है। अद्वैत वेदान्त (शंकराचार्य) इसे इस रूप में देखते हैं कि जीव और जगत ब्रह्म से भिन्न नहीं, सब उसी की अभिव्यक्ति हैं और अंततः आत्मा का परमात्मा से मिलन ही परम सत्य है। द्वैत वेदान्त (मध्वाचार्य) मानते हैं कि सृष्टि का कारण और आधार तो ब्रह्म है, पर जीव और ईश्वर सदा भिन्न हैं; जीव ईश्वर पर आश्रित है और उसकी कृपा का पात्र है। विशिष्टाद्वैत (रामानुजाचार्य) कहते हैं कि जीव और जगत ब्रह्म से अलग भी नहीं और पूरी तरह एक भी नहीं, बल्कि उसके अविभाज्य अंग की तरह उससे जुड़े रहते हैं, जैसे शरीर और आत्मा का संबंध। वहीं चतुष्तैत (वल्लभाचार्यकृत शुद्धाद्वैत एवं अन्य पन्थ) इसे इस रूप में देखते हैं कि जीव, जगत और ईश्वर सब ब्रह्म के ही विविध रूप हैं, जिनका जीवन, लीला और लय सब उसी में निहित है। इस प्रकार, चाहे किसी भी दृष्टि से देखें, यह श्लोक यही प्रतिपादित करता है कि ब्रह्म ही सृष्टि का आदि, आधार और अंतिम आश्रय है।

निष्कर्ष
तैत्तिरीयोपनिषद् का यह महान श्लोक — “यतो वा इमानि भूतानि…” हमें सृष्टि और जीवन के परम सत्य से परिचित कराता है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि ब्रह्म ही समस्त जगत का मूल कारण, पोषक और अंतिम आश्रय है। जीव और जगत चाहे जैसे प्रकट हों, उनकी सत्ता उसी परमसत्ता पर निर्भर है। अद्वैत, द्वैत, त्रैत और चतुष्तैत—सभी दर्शन इस श्लोक में अपना आधार पाते हैं और अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या करते हैं, पर निष्कर्ष एक ही है कि सृष्टि का आदि, मध्य और अंत केवल ब्रह्म है।

यह श्लोक मानव को यह सिखाता है कि शरीर, धन, पद, सुख-दुःख सब क्षणिक हैं; वास्तविक सत्य केवल ब्रह्म है। जब मनुष्य इस सत्य को हृदयंगम करता है, तो उसका अहंकार मिट जाता है और जीवन में श्रद्धा, समर्पण और शांति का संचार होता है। यही आत्मसाक्षात्कार है और यही उपनिषदों का अंतिम संदेश कि हम सब उसी ब्रह्म की अभिव्यक्तियाँ हैं और अंततः उसी में विलीन हो जाते हैं।

योगेश गहतोड़ी

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