Uncategorized
Trending

समाधि पाद


सूत्र— ३
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।

तदा= उस समय; द्रष्टुः= द्रष्टा की; स्वरूपे= अपने रूप में अवस्थानम्= स्थिति हो जाती है ।

अनुवाद— उस समय दृष्टा {आत्मा} की अपने रूप में स्थिति हो जाती है ।

व्याख्या— आत्मा चैतन्य है वह दृष्टा एवं साक्षी है । किंतु वह निष्क्रिय दृष्टा मात्र नहीं है । वह प्रकृतिजन्य किसी भी क्रिया में स्वयं भाग नहीं लेता किंतु वह सभी क्रियाओं का कारण और उनके प्रेरक शक्ति है ।

चित्त की वृत्तियां जड़ हैं जिनकी निरोध से चैतन्य आत्मा अपने शुद्ध रूप में अवस्थित हो जाती है । यही ‘कैवल्य’ अथवा ‘मोक्ष’ की स्थित है ।
जिस प्रकार शुद्ध स्वर्ण में मिलावट करने पर विभिन्न प्रकार के स्वर्ण आभूषण बनाए जाते हैं किंतु उसके परिशोधन से मिलावट को निकाल कर पुनः शुद्ध स्वर्ण प्राप्त किया जाता है ऐसी ही प्रक्रिया योग की है जिससे प्रकृति अन्य समस्त तत्वों को अलग कर शुद्ध आत्म तत्व की उपलब्धि की जाती है । इसमें आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है जो उसका शुद्ध स्वरूप है ।।

स्रोत— पतंजलि योग सूत्र
लेखन एवं प्रेषण—
पं. बलराम शरण शुक्ल
हरिद्वार

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *