
सूत्र— ४
वृत्तिसारूप्यमितरत्र ।
इतरत्र= दूसरे समय में {द्रष्टा का} वृत्ति सारूप्यम्= वृत्ति के सदृश स्वरूप होता है ।
अनुवाद— दूसरे समय में {दृष्टा आत्मा का} वृत्ति के सदृश स्वरूप होता है ।
व्याख्या— जब चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है तब तभी आत्मा की {दृष्टा} अपने स्वरूप में स्थित होती है किंतु अन्य समय में जब तक उस आत्मा का संयोग वृत्तियों के साथ रहता है उसका स्वरूप वृत्तियों के होता है ।
यह आत्मा वृत्तियों के साथ मिलकर वृत्तियों के समान ही अन्य वस्तुओं को देखती है किंतु स्वयं को नहीं देख सकती ।
इसे निज स्वरूप का ज्ञान नहीं होता किंतु जब वृत्तियां रुक जाती हैं तभी इसे अपने स्वरूप का ज्ञान होता है इससे पूर्व नहीं ।
जिस प्रकार दर्पण में देखने पर आसपास की सभी वस्तुएं दिखाई देती हैं किंतु इन्हें देखने वाली आंख दिखाई नहीं देती तथा देखने वाली आंख के देखने पर अन्य कुछ भी दिखाई नहीं देता इसी प्रकार दृष्टा {आत्मा} की स्थिति है । चित्त का कारण प्रकृति है तथा इसमें भेद दिखाई देने के कारण वुद्धि है । मोटे तौर पर चित्त की दो ही वृत्तियाँ हैं— वृत्तिसारूप्य तथा वृत्तिवैरूप्य । इसी को ‘विद्या’ और ‘अविद्या’ कहते हैं ।
जब चित्त आत्मा की ओर आकर्षित होता है तो वह विद्या है किंतु जब वह वृत्तियों के अनुरूप वासना के कारण संसार की ओर आकर्षित होता है तो ‘अविद्या’ है ।
महर्षि पतंजलि ने समस्त योग का सार इन चार ही सूत्रों में समाहित कर दिया । जो इनको ठीक प्रकार से समझ लेता है वह योग को भली भाँति समझ सकता है ।
आगे के सूत्रों में इन्हीं चारों का विस्तार है ।।
स्रोत— पतंजलि योग सूत्र
लेखन एवं प्रेषण—
पं. बलराम शरण शुक्ल
हरिद्वार