
उफ़ान मारती दरिया बहा ले गई गाँव के गाँव,
नदिया का पानी बन गया है डाकनी सैलाब।
आदमी परेशान है कुदरत के कहर से,
जन-जीवन तबाह है—कुछ बह गए, कुछ दब गए,
प्रकृति बन गई श्राप।
पहाड़, जो कभी बुलाता था—लुभाता था,
आज वही बन बैठा है । बैताल पिशाच।
आसमान की आँखों में भी खून उतर आया है,
धरती भी खा रही है आदमी—
समझकर अपना आहार
आर एस लॉस्टम