
प्रस्तावना
भारत बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश है, जहाँ मातृभाषा व्यक्ति की जन्मभूमि की भाषा होकर उसके संस्कारों, विचारों और भावनाओं की जड़ बनती है और मानसिक व बौद्धिक विकास का आधार प्रदान करती है। राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय चेतना, एकता और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक होती है, जो लोगों को देश और संस्कृति के प्रति जोड़ती है। राजभाषा शासन, न्याय और प्रशासन में आधिकारिक भाषा के रूप में मानव के अधिकारों और कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से संप्रेषित करती है और प्रशासनिक संवाद को सुगम बनाती है; भारत में हिंदी को देवनागरी लिपि में राजभाषा का दर्जा प्राप्त है, जबकि अंग्रेज़ी सहायक भाषा के रूप में प्रयुक्त होती है। इसके साथ ही, अनिवार्य भाषा शिक्षा, ज्ञान और रोजगार के अवसरों से व्यक्ति को जोड़ती है और उसे सामाजिक, शैक्षिक एवं व्यावसायिक जीवन में सशक्त बनाती है। इस प्रकार ये सभी भाषाएँ मानव के व्यक्तिगत, सामाजिक, बौद्धिक और राष्ट्रीय विकास में तथा भारत की विविधता में एकता, प्रशासनिक सुगमता और सांस्कृतिक निरंतरता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
हिन्दी भाषा मानव जीवन और समाज की आत्मा है, क्योंकि इसके बिना न तो विचारों का आदान-प्रदान संभव है और न ही संस्कृति और परंपराओं का संरक्षण। यह केवल संचार का साधन ही नहीं, बल्कि मनुष्य की भावनाओं, कल्पनाओं और रचनात्मकता की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है। भाषा के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान, अनुभव और सांस्कृतिक मूल्य सुरक्षित रहते हैं और समाज अपनी पहचान को जीवित रखता है। चाहे राष्ट्रभाषा हो, राजभाषा हो, मातृभाषा हो या अनिवार्य भाषा—हर भाषा का अपना महत्त्व है और यही भाषाई विविधता मानवीय सभ्यता को समृद्ध और जीवंत बनाए रखती है।
१. राष्ट्रभाषा
किसी भी राष्ट्र के जीवन में भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं होती, बल्कि वह उसकी सांस्कृतिक पहचान, सामाजिक एकता और राष्ट्रीय चेतना की धुरी होती है। जिस भाषा में राष्ट्र के अधिकांश लोग अपने विचार व्यक्त करते हैं, संघर्ष और उपलब्धियों को संजोते हैं तथा सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखते हैं, वही भाषा राष्ट्र की आत्मा बनकर “राष्ट्रभाषा” का स्वरूप ग्रहण करती है। भारत जैसे बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश में राष्ट्रभाषा का महत्त्व और भी बढ़ जाता है, क्योंकि यह विविध भाषाओं और परंपराओं को जोड़ने वाला सेतु है। हिंदी ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय जनजागरण और राष्ट्रीय एकता को सशक्त करने का कार्य किया और यही कारण है कि इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ। राष्ट्रभाषा न केवल राष्ट्रीय गौरव की प्रतीक है, बल्कि यह नागरिकों में आत्मीयता, बंधुत्व और सांस्कृतिक एकता की भावना भी जाग्रत करती है।
१.१ राष्ट्रभाषा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
राष्ट्रभाषा वह भाषा होती है जो समूचे राष्ट्र की आत्मा, परंपरा और भावनात्मक एकता की प्रतीक होती है और जो लोगों के बीच संवाद एवं राष्ट्रीय चेतना का माध्यम बनती है। भारत में हिंदी को यह दर्जा इसलिए प्राप्त हुआ कि यह बहुसंख्यक जनसमूह द्वारा बोली-समझी जाती है और भारतीय संस्कृति की सहज अभिव्यक्ति करती है। स्वतंत्रता आंदोलन में हिंदी ने जनता को जागरूक और संगठित करने में बड़ी भूमिका निभाई। महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे नेताओं ने हिंदी को राष्ट्रभाषा मानने का आग्रह किया। संविधान सभा की चर्चाओं के बाद इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा मिला और यह भारतीय स्वाभिमान एवं स्वतंत्रता की पहचान के रूप में स्थापित हुई।
१.२ भारत में राष्ट्रभाषा को लेकर धारणाएँ
भारत जैसे बहुभाषी देश में राष्ट्रभाषा को लेकर सदैव विविध मत और धारणाएँ रही हैं। संविधान निर्माण के समय हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारने का प्रस्ताव सामने आया, किंतु विभिन्न प्रांतों में बोली जाने वाली भाषाओं की विविधता के कारण इस पर लंबी बहस हुई। एक पक्ष का मानना था कि हिंदी ही राष्ट्रीय एकता का आधार बन सकती है, क्योंकि यह बड़ी जनसंख्या द्वारा बोली और समझी जाती है, जबकि दूसरा पक्ष यह तर्क देता रहा कि किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा घोषित करना अन्य भाषाओं के साथ अन्याय होगा। परिणामस्वरूप संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया, परंतु राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर आज भी वैचारिक मतभेद और बहस जारी होते रहते हैं।
१.३ राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता का संबंध
राष्ट्रभाषा किसी भी देश की आत्मा और राष्ट्रीय एकता का मूल आधार होती है, क्योंकि यह विविधता में एकता का भाव जागृत करती है। भारत जैसे बहुभाषी देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखा गया, जिसने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जनमानस को एक धागे में पिरोने का कार्य किया। राष्ट्रभाषा एक ऐसा साझा मंच प्रदान करती है, जहाँ विभिन्न भाषाई और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले लोग सहजता से जुड़ सकते हैं। जब नागरिक अपनी राष्ट्रभाषा के माध्यम से संवाद करते हैं, तो उनमें समानता, आत्मीयता और राष्ट्रीय चेतना की भावना मजबूत होती है। इस प्रकार राष्ट्रभाषा केवल भाषाई पहचान ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता और अखंडता की भी प्रतीक होती है।
२. राजभाषा
राजभाषा उस भाषा को कहा जाता है जिसे शासन-प्रशासन और सरकारी कार्यों के लिए अधिकृत रूप से स्वीकार किया जाता है, ताकि प्रशासनिक प्रक्रियाएँ सरल हों और आम जनता आसानी से जुड़ सके। भारतीय संविधान में हिंदी को देवनागरी लिपि में देश की राजभाषा घोषित किया गया तथा अंग्रेज़ी को सहायक भाषा का दर्जा प्रदान किया गया। राजभाषा का उद्देश्य केवल सरकारी कार्य निष्पादन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जनता और सरकार के बीच सहज संचार का माध्यम भी है। इससे शासन व्यवस्था पारदर्शी बनती है और राष्ट्रीय स्तर पर एकरूपता तथा सहयोग की भावना विकसित होती है।
२.१ राजभाषा का संवैधानिक प्रावधान
राजभाषा भारत में शासन, न्यायिक कार्यवाही और सरकारी अभिलेखों में आधिकारिक रूप से प्रयुक्त होती है। भारत के संविधान के भाग XVII (अनुच्छेद 343 से 351) में इसके संबंध में विशेष प्रावधान किए गए हैं। अनुच्छेद 343 के अनुसार देश की राजभाषा हिंदी और उसकी लिपि देवनागरी होगी, साथ ही अंग्रेज़ी को सीमित अवधि तक सहायक भाषा के रूप में प्रयोग करने की अनुमति दी गई। बाद में राज्यों की भाषाई परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अंग्रेज़ी के उपयोग को जारी रखने का निर्णय लिया गया। संविधान यह भी सुनिश्चित करता है कि भारतीय भाषाओं को समान आदर और संवैधानिक संरक्षण प्राप्त हो। इस प्रकार, राजभाषा की व्यवस्था राष्ट्रीय प्रशासन में एकता, सुगमता और जनसुलभता लाने के उद्देश्य से की गई है।
२.२ हिंदी को राजभाषा बनाने का निर्णय
भारतीय संविधान सभा में कई बार चर्चाओं और विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया कि हिंदी को देश की राजभाषा बनाया जाए। संविधान के अनुच्छेद 343 में स्पष्ट किया गया कि देश की राजभाषा हिंदी होगी और उसकी लिपि देवनागरी होगी। साथ ही, शासन-प्रशासन में व्यवहारिक कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए अंग्रेज़ी भाषा को भी 15 वर्षों तक सहायक भाषा के रूप में प्रयोग करने का प्रावधान रखा गया। इस निर्णय के पीछे उद्देश्य यह था कि हिंदी, जो व्यापक जनसमूह द्वारा बोली और समझी जाती है, राष्ट्रीय प्रशासन और जनसंवाद का सरल माध्यम बने। यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र की भाषाई विविधता और राष्ट्रीय एकता के संतुलन को ध्यान में रखते हुए लिया गया।
२.३ राजभाषा और प्रशासनिक कार्यप्रणाली
राजभाषा का मुख्य उद्देश्य शासन और प्रशासन को सरल, सुलभ और जनसामान्य के निकट बनाना है। भारत में हिंदी को राजभाषा के रूप में अपनाने का तात्पर्य यह था कि सरकारी नीतियाँ, योजनाएँ और आदेश जनभाषा में उपलब्ध हों, ताकि नागरिक उन्हें आसानी से समझ सकें और प्रशासन से जुड़ाव महसूस कर सकें। संविधान के अनुसार सरकारी दस्तावेज़, संचार और कार्यवाही हिंदी में होना अपेक्षित है, किंतु अंग्रेज़ी के सहायक प्रयोग ने प्रशासन को द्विभाषिक स्वरूप प्रदान किया। धीरे-धीरे सरकारी कार्यालयों, न्यायालयों और शिक्षा संस्थानों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा दिया गया, ताकि राजभाषा के माध्यम से शासन-प्रशासन जनता के निकट पहुँच सके और लोकतंत्र की जड़ें और गहरी हों।
२.४ राजभाषा और स्थानीय भाषाओं का संतुलन
भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में राजभाषा और स्थानीय भाषाओं के बीच संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। राजभाषा हिंदी राष्ट्रीय स्तर पर प्रशासनिक एकरूपता और संचार की सहजता प्रदान करती है, जबकि स्थानीय भाषाएँ अपनी-अपनी संस्कृति, परंपरा और लोकजीवन की पहचान को सुरक्षित रखती हैं। यदि केवल राजभाषा पर बल दिया जाए तो प्रादेशिक भाषाओं के उपेक्षित होने का खतरा उत्पन्न होता है और यदि स्थानीय भाषाओं को ही प्रधानता दी जाए तो राष्ट्रीय एकता कमजोर हो सकती है। इसलिए संविधान ने सभी भाषाओं को समान मान्यता और संरक्षण दिया है, ताकि राजभाषा प्रशासनिक और राष्ट्रीय स्तर पर भूमिका निभाए तथा स्थानीय भाषाएँ जनजीवन और सांस्कृतिक धरोहर को संजोए रखें। यही संतुलन भारतीय लोकतंत्र और बहुसांस्कृतिक समाज की वास्तविक शक्ति है।
३. मातृभाषा
मातृभाषा वह भाषा है, जिसे बच्चा सबसे पहले अपने परिवार, विशेषकर माँ के माध्यम से सुनता और सहज रूप से अपनाता है। इसी भाषा के जरिए उसकी सोचने की शैली, भावनाएँ और व्यक्तित्व का विकास होता है। यह उसकी संस्कृति, परंपरा और सामाजिक पहचान की नींव होती है। यदि शिक्षा मातृभाषा में मिले तो समझने की क्षमता गहरी होती है और आत्मविश्वास भी बढ़ता है। इसीलिए मातृभाषा केवल संचार का साधन नहीं, बल्कि जड़ों से जुड़े रहने और सांस्कृतिक विरासत को आगे पहुँचाने का सबसे प्रभावी माध्यम है।
३.१ मातृभाषा का भावनात्मक जुड़ाव
मातृभाषा वह भाषा है जिसे शिशु जन्म के बाद स्वाभाविक रूप से परिवारिक वातावरण में सीखता है। इस भाषा के माध्यम से उसके विचार, संस्कार और जीवनदृष्टि का निर्माण होता है। यह संवाद भर का साधन नहीं है, बल्कि व्यक्ति की स्मृतियों, संवेदनाओं और अनुभवों से गहरे रूप में बंधी होती है। मातृभाषा में कही गई बातें अधिक आत्मीय और प्रभावशाली होती हैं, क्योंकि यह उसकी पहचान और चेतना का प्रथम आधार है। इसी कारण यह समाज और व्यक्ति दोनों के लिए भावनात्मक संबंध का सेतु बनती है और सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण में अनिवार्य भूमिका निभाती है।
३.२ शिक्षा और बाल-विकास में भूमिका
मातृभाषा बालक की शिक्षा और बौद्धिक विकास की आधारशिला है, क्योंकि यही भाषा उसकी समझ, जिज्ञासा और अभिव्यक्ति को सबसे सहज रूप में विकसित करती है। मातृभाषा में दी गई शिक्षा बच्चों को जटिल विषयों को सरलता से ग्रहण करने में मदद करती है और उनमें आत्मविश्वास का संचार करती है। यही भाषा उन्हें अपनी संस्कृति, लोक परंपराओं और नैतिक मूल्यों से जोड़ती है, जिससे उनका व्यक्तित्व संतुलित और सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध बनता है। बाल-विकास की प्रारंभिक अवस्था में मातृभाषा का प्रयोग मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक परिपक्वता के लिए अत्यंत आवश्यक माना जाता है। इस प्रकार मातृभाषा शिक्षा, संस्कृति और बाल-विकास तीनों क्षेत्रों में नींव का कार्य करती है।
३.३ मातृभाषा और बहुभाषिक समाज की चुनौतियाँ
बहुभाषिक समाज में मातृभाषा का संरक्षण और संवर्धन कई चुनौतियों के सामने खड़ा होता है। शिक्षा और प्रशासन में प्रायः राजभाषा या अनिवार्य भाषा को प्राथमिकता मिलने से मातृभाषा का प्रयोग सीमित हो जाता है, जिससे नई पीढ़ी अपनी ही भाषा से दूर होती जाती है। वैश्वीकरण और तकनीकी विकास ने भी अंग्रेज़ी जैसी अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं को महत्व दिया है, जिससे मातृभाषा हाशिए पर जाने लगी है। बहुभाषिक समाज में यह कठिनाई और बढ़ जाती है, क्योंकि विभिन्न भाषाओं के बीच संतुलन बनाते हुए मातृभाषा को जीवित रखना सरल नहीं होता। यदि समय रहते मातृभाषा की शिक्षा, साहित्य और सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रोत्साहित न किया जाए, तो भाषाई विविधता और सांस्कृतिक पहचान संकट में पड़ सकती है।
४. अनिवार्य भाषा
अनिवार्य भाषा वह होती है जिसे विशेष परिस्थितियों, व्यावहारिक महत्व और व्यापक उपयोगिता के कारण शिक्षा, प्रशासन या सामाजिक जीवन में आवश्यक माना जाता है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में अंग्रेज़ी को इस श्रेणी में रखा गया है, क्योंकि यह विज्ञान, तकनीक, वाणिज्य, उच्च शिक्षा और वैश्विक संचार की प्रमुख भाषा है। यह देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जोड़ने और प्रतिस्पर्धा में सक्षम बनाने में सहायक है। अनिवार्य भाषा का उद्देश्य मातृभाषा, राष्ट्रभाषा या राजभाषा का स्थान लेना नहीं है, बल्कि उनके साथ सह-अस्तित्व में रहकर आधुनिक समय की आवश्यकताओं को पूरा करना है।
४.१ अनिवार्य भाषा की धारणा
शिक्षा जगत और प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में अनिवार्य भाषा की अहमियत और बढ़ जाती है। अंग्रेज़ी के प्रयोग से विद्यार्थियों को विश्वभर के ज्ञान-संसाधनों तक पहुँच मिलती है और वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अवसरों के लिए तैयार हो पाते हैं। उच्च शिक्षा, शोध और तकनीकी क्षेत्रों में इसका प्रयोग छात्रों को प्रगति की राह दिखाता है। प्रतियोगी परीक्षाओं में भी अंग्रेज़ी के प्रश्नों और अध्ययन-सामग्री की उपस्थिति उम्मीदवारों को वैश्विक दृष्टिकोण और करियर संभावनाओं से जोड़ती है। फिर भी, यह जरूरी है कि शिक्षा की नींव मातृभाषा और राष्ट्रभाषा पर ही रखी जाए, ताकि छात्र अपनी सांस्कृतिक पहचान से जुड़े रहते हुए आधुनिक दुनिया से तालमेल बिठा सकें।
४.२ अनिवार्य भाषा के रूप में हिंदी/अंग्रेज़ी की भूमिका
भारत में हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों ही अनिवार्य भाषा के रूप में विशिष्ट भूमिका निभाती हैं। हिंदी, जो देश की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है, राष्ट्रीय स्तर पर संवाद और प्रतियोगी परीक्षाओं में महत्वपूर्ण स्थान रखती है, जबकि अंग्रेज़ी उच्च शिक्षा, विज्ञान-तकनीक, वैश्विक व्यापार और अंतरराष्ट्रीय संचार का प्रमुख साधन बनी हुई है। शिक्षा और प्रशासन में इन दोनों भाषाओं का समानांतर प्रयोग विद्यार्थियों और नागरिकों को स्थानीय तथा वैश्विक दोनों स्तरों पर अवसर उपलब्ध कराता है। इस प्रकार हिंदी राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक आधार को मजबूत करती है, वहीं अंग्रेज़ी भारत को विश्व समुदाय से जोड़ने का सेतु बनती है।
४.३ अनिवार्य भाषा और भाषा-स्वतंत्रता
अनिवार्य भाषा की अवधारणा जहाँ एक ओर शिक्षा, प्रशासन और वैश्विक अवसरों की दृष्टि से आवश्यक प्रतीत होती है, वहीं दूसरी ओर यह भाषा-स्वतंत्रता के प्रश्न को भी जन्म देती है। जब किसी एक भाषा को अनिवार्य बना दिया जाता है, तो अन्य भाषाओं के बोलने वाले लोग स्वयं को उपेक्षित महसूस कर सकते हैं और यह स्थिति भाषाई असमानता को बढ़ावा देती है। भाषा-स्वतंत्रता का अर्थ है कि प्रत्येक नागरिक को अपनी मातृभाषा या पसंदीदा भाषा में शिक्षा और अभिव्यक्ति का अधिकार मिले। अतः समाधान यही है कि अनिवार्य भाषा को केवल अवसर और संसाधनों के विस्तार का साधन माना जाए, न कि अन्य भाषाओं पर वर्चस्व स्थापित करने का माध्यम। इस प्रकार अनिवार्य भाषा और भाषा-स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाकर ही समाज में भाषाई समानता और सौहार्द सुनिश्चित किया जा सकता है।
५. भाषाई विविधता और लोकतांत्रिक भारत
भारत का लोकतंत्र अपनी सबसे बड़ी शक्ति भाषाई विविधता में पाता है, जहाँ सैकड़ों भाषाएँ और बोलियाँ मिलकर सांस्कृतिक बहुरूपता का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। संविधान ने 22 भाषाओं को अनुसूचित भाषा का दर्जा देकर न केवल भाषाई विविधता को मान्यता दी है, बल्कि लोकतांत्रिक भावना को भी सशक्त बनाया है। लोकतांत्रिक भारत में प्रत्येक नागरिक को अपनी मातृभाषा में शिक्षा, अभिव्यक्ति और सांस्कृतिक संरक्षण का अधिकार प्राप्त है, जिससे सभी भाषाओं को समान महत्व और सम्मान मिल सके। यही विविधता भारतीय लोकतंत्र को अधिक समावेशी और जीवंत बनाती है, जहाँ विभिन्न भाषाएँ एक-दूसरे के विरोध में नहीं, बल्कि सहयोग और सामंजस्य के माध्यम से “विविधता में एकता” के आदर्श को साकार करती हैं।
५.१ भारत में 22 अनुसूचित भाषाएँ
भारत भाषाई विविधता का अनूठा उदाहरण है, जहाँ संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को विशेष मान्यता प्राप्त है। इनमें हिंदी, संस्कृत, उर्दू, बंगाली, तमिल, तेलुगु, मराठी, गुजराती, पंजाबी, असमिया, उड़िया, कन्नड़ और मलयालम जैसी प्रमुख भाषाएँ शामिल हैं। इसके अतिरिक्त देश के विभिन्न प्रांतों और समुदायों में सैकड़ों बोलियाँ प्रचलित हैं, जो स्थानीय संस्कृति, लोककथाओं और परंपराओं की जीवंत धरोहर हैं। यह भाषाई विविधता भारतीय समाज को समृद्ध और रंगीन बनाती है, किंतु इसके संरक्षण और संवर्धन की जिम्मेदारी भी उतनी ही बड़ी है। वास्तव में, भारत की एकता उसकी इसी भाषाई विविधता में निहित है, जो “विविधता में एकता” के आदर्श को मूर्त रूप प्रदान करती है।
५.२ ‘विविधता में एकता’ के संदर्भ में भाषाओं का सामंजस्य
भारत में भाषाओं की विविधता केवल भिन्नता का प्रतीक नहीं, बल्कि सामंजस्य और सहयोग की पहचान भी है। विभिन्न प्रांतों की भाषाएँ और बोलियाँ अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ भारतीय संस्कृति की बहुरंगी माला में मोतियों की तरह गुँथी हुई हैं। हिंदी राजभाषा के रूप में एक सेतु का कार्य करती है, जबकि अन्य भाषाएँ अपनी क्षेत्रीय पहचान और सांस्कृतिक गौरव को संजोए रखती हैं। जब विभिन्न भाषाओं के बोलने वाले लोग परस्पर आदर और समानता का भाव रखते हैं, तो “विविधता में एकता” की भावना और प्रबल होती है। यही भाषाई सामंजस्य भारतीय लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता का मूल स्तंभ है।
५.३ भाषा आधारित क्षेत्रीयता और उसके समाधान
भारत में भाषाई विविधता कभी-कभी क्षेत्रीयता का रूप ले लेती है, जब लोग अपनी भाषा को सर्वोच्च मानकर अन्य भाषाओं के प्रति असहिष्णु हो जाते हैं। यह प्रवृत्ति राष्ट्रीय एकता को कमजोर कर सकती है और सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देती है। भाषा आधारित क्षेत्रीयता के समाधान के लिए आवश्यक है कि सभी भाषाओं को समान सम्मान और संरक्षण दिया जाए तथा शिक्षा और प्रशासन में बहुभाषिक दृष्टिकोण अपनाया जाए। राजभाषा हिंदी को राष्ट्रीय सेतु मानते हुए स्थानीय भाषाओं को भी प्रोत्साहन दिया जाए, ताकि नागरिक अपनी मातृभाषा से जुड़े रहें और साथ ही राष्ट्रीय मुख्यधारा से भी संबंध बनाए रखें। परस्पर आदान-प्रदान, अनुवाद और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से भाषाई विविधता को संघर्ष नहीं, बल्कि सामंजस्य और एकता का साधन बनाया जा सकता है।
६. राष्ट्रभाषा, राजभाषा, मातृभाषा और अनिवार्य भाषा में संतुलन
भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में राष्ट्रभाषा, राजभाषा, मातृभाषा और अनिवार्य भाषा के बीच संतुलन बनाए रखना समय की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता और भावनात्मक जुड़ाव का आधार है, राजभाषा शासन-प्रशासन की सरलता और पारदर्शिता सुनिश्चित करती है, मातृभाषा व्यक्ति की सोच, संस्कार और सांस्कृतिक पहचान को संजोती है, वहीं अनिवार्य भाषा आधुनिक युग में वैश्विक संवाद और प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है। यदि इन भाषाओं के महत्व को उचित सम्मान न दिया जाए तो राष्ट्रीय एकता प्रभावित हो सकती है, सांस्कृतिक जड़ें कमजोर हो सकती हैं और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने का खतरा भी बढ़ सकता है। इसलिए सभी भाषाओं को उनके निर्धारित क्षेत्र में समान महत्व देकर संतुलन बनाए रखना ही राष्ट्र और समाज की समग्र प्रगति का आधार है।
७. भाषा को संघर्ष का नहीं, संवाद और विकास का माध्यम बनाना
भाषा का वास्तविक उद्देश्य मानव-मानव के बीच विचारों, भावनाओं और संस्कारों का आदान-प्रदान करना है, न कि समाज में संघर्ष और विभाजन उत्पन्न करना। जब भाषा को श्रेष्ठता या क्षेत्रीयता के आधार पर आँका जाता है, तो यह विवाद और असमानता को जन्म देती है; जबकि यदि इसे संवाद और सहयोग का साधन माना जाए, तो यह सामाजिक सौहार्द, राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक विकास का मार्ग प्रशस्त करती है। बहुभाषी भारत में प्रत्येक भाषा का सम्मान और समान अवसर सुनिश्चित करना आवश्यक है, ताकि मातृभाषा संस्कृति को संजोए, राजभाषा प्रशासन को जोड़े, राष्ट्रभाषा एकता को सुदृढ़ करे और अनिवार्य भाषा वैश्विक विकास का द्वार खोले। इस प्रकार भाषा को संघर्ष का नहीं, बल्कि संवाद और विकास का माध्यम बनाना ही मानवता की सच्ची प्रगति है।
८. भविष्य की पीढ़ियों के लिए भाषाई चेतना
भविष्य की पीढ़ियों के लिए भाषाई चेतना जाग्रत करना और उसका निर्वहन करना हम सबका नैतिक दायित्व है। भाषा केवल संचार का साधन नहीं, बल्कि संस्कृति, परंपरा और ज्ञान की निरंतरता की धरोहर है, जिसे आने वाली पीढ़ियों तक सुरक्षित पहुँचाना आवश्यक है। यदि बच्चे अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा से दूर होते हैं, तो वे अपनी जड़ों और पहचान से भी कट जाते हैं। इसलिए परिवार, विद्यालय और समाज को मिलकर यह प्रयास करना चाहिए कि प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में दी जाए, राष्ट्रभाषा से राष्ट्रीय एकता का बोध कराया जाए और अनिवार्य भाषा के माध्यम से वैश्विक दृष्टि विकसित की जाए। इस प्रकार भाषाई चेतना और दायित्व का निर्वहन करके ही हम आने वाली पीढ़ियों को मजबूत सांस्कृतिक आधार और समृद्ध भविष्य दे सकते हैं।
९. भाषाओं का अद्वैत दर्शन से संबंध
अद्वैत दर्शन का मूल भाव है कि सम्पूर्ण जगत एक ही सत्ता का विस्तार है और सबमें कोई भेद नहीं है। इसी दृष्टि से देखें तो राष्ट्रभाषा पूरे देश की सांस्कृतिक आत्मा को जोड़कर एकत्व का बोध कराती है, राजभाषा शासन और जनता के बीच भेद मिटाकर समानता स्थापित करती है, मातृभाषा व्यक्ति को उसकी जड़ों और अस्तित्व से जोड़कर आत्मा और ब्रह्म के अद्वैत का अनुभव कराती है, वहीं अनिवार्य भाषा विश्व को एक परिवार मानते हुए वैश्विक संवाद का माध्यम बनती है। इस प्रकार चारों भाषाएँ अद्वैत के उस सिद्धांत को मूर्त रूप देती हैं, जिसमें विविधता के बीच भी एकता, समरसता और सहयोग की भावना निहित रहती है।
१०. हिन्दी पखवाड़ा में हिन्दी भाषा का महत्व
हिन्दी पखवाड़ा केवल भाषा का उत्सव नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रभाषा, राजभाषा, मातृभाषा और अनिवार्य भाषा के महत्व को समझने और उनके आपसी संतुलन को महसूस करने का अवसर भी प्रदान करता है। इस दौरान यह संदेश स्पष्ट होता है कि हिन्दी राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक पहचान को सुदृढ़ करती है, राजभाषा प्रशासन और शासन को सहज और पारदर्शी बनाती है, मातृभाषा व्यक्ति को उसकी जड़ों और सांस्कृतिक विरासत से जोड़ती है और अनिवार्य भाषा वैश्विक संवाद एवं आधुनिक ज्ञान तक पहुँच का मार्ग खोलती है। इसलिए हिन्दी पखवाड़ा समाज में भाषाओं के प्रति सम्मान, जागरूकता और संवाद की भावना पैदा करने का माध्यम बनता है, जिससे बहुभाषी भारत में “विविधता में एकता” का आदर्श साकार रूप में अनुभव किया जा सकता है।
योगेश गहतोड़ी “यश”