
।। कैसे लक्षित होती हैं वास्तविक सिद्धियाँ ।।
१– धर्म, लक्षण और अवस्था तीनों परिणामों में संयम करने से भूत भविष्य का ज्ञान होता है ।।
२– संस्कारों के प्रत्यक्ष होने से साधक को पूर्वजन्म का ज्ञान होता है ।।
जैसे चित्र उतारने वाले मनुष्य मूर्ति को कागज पर खींच देते हैं वैसे ही संस्कारों में संयम करने से संस्कार के कारण रूप कार्यों का योगी को यथावत् ज्ञान हो सकता है ।।
३– शब्द, अर्थ, और ज्ञान के एक दूसरे में घनिष्ट मेल हैं, उनके विभागों में संयम करने से सब प्राणियों की वाणी का ज्ञान होता हैं ।।
४– ज्ञान में संयम करने से दूसरे के चित्त का ज्ञान होता है ।।
किसी जीव विशेष के अन्तःकरण का हाल जानना हो तो उसके ज्ञान की पर्यालोचना करके उसके मन का हाल जाना जाता हैं व सब हाल जान सकते हैं ।।
५– कायागत रूप से संयम करने से उसकी ग्राह्य शक्ति का स्तम्भन हो जाता है और शक्ति का स्तम्भन होने से दूसरे के नेत्र के प्रकाश का योगी शरीर के साथ संयोग नहीं होता तब योगी के शरीर का अन्तर्धान हो जाता है ।।
जैसे रूप विषयक संयम करने से योगी के शरीर के रूप को कोई नहीं देख सकता उसी प्रकार शब्दादि पाँचों के विषय में संयम करने से योगी के शरीर के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध को, पास में उपस्थित पुरुष भी नहीं जान सकता ।।
६– जो कर्म शीघ्र फलदायक हो जाता है, उस शीघ्र कार्यकारी अवस्था का नाम ‘सोपक्रम’ है ।।
जैसे जल से भीगे हुए कपड़े को निचोड़ देने से वह जल्दी सूख जाता हैं निरूपक्रम कर्म विपाक की मंदता के कारण विलम्ब से फलदायक कर्म की अवस्था का नाम ‘निरूपक्रम’ है। जैसे बिना निचोड़ा कपड़ा देर से सूखता हैं। इन दो प्रकार के कर्मों में जो योगी संयम करता है, उसको मृत्यु का ज्ञान हो जाता है ।।
७– मैत्री, मुदिता, करुणा और उपेक्षा आदि में संयम करने से तत्सम्बन्धी बल की प्राप्ति होती है ।। मैत्रीबल, करुणाबल, मुदिताबल और उपेक्षा बल की प्राप्ति करके योगी पूर्ण मनोबल अर्थात् आत्मबल प्राप्त करता है। जो शक्ति अन्तःकरण को इन्द्रियों में न गिरने देकर नियमित रूप से आत्म स्वरूप की ओर खींचती रहती है उसी को आत्मबल या तेज कहते हैं ।।
८– बल में संयम करने से योगी को हाथी के बलादि प्राप्त हो सकते हैं ।।
बल दो प्रकार के होते हैं, एक आत्मबल और दूसरा शारीरिक बल प्रकृति विभिन्न होने से बल में स्वतंत्रता है। जैसे हाथी शेर खेचर व पक्षियों का ओर जलचरों का बल जिस प्रकार के बल की आवश्यकता हो उसी प्रकार के बलशाली जीवों के बल में संयम करने से उसी तरह के बल की प्राप्ति होती हैं ।।
९– ज्योतिष्मति प्रकृति के प्रकाश को सूक्ष्मादि वस्तुओं में न्यस्त करके उन पर संयम करने से योगी को सूक्ष्म, गुप्त और दूरस्थ पदार्थो का ज्ञान होता है ।।
लययोगी शरीर के द्विदल स्थान में शुद्ध तेज पूर्ण बिन्दु का दर्शन करता है । वह ज्योतिष्मति प्रवृत्ति बिन्दु रूप से आविर्भूत होकर जब स्थिर होने लगती है तब वहीं बिन्दु ध्यान की अवस्था है ।।
उसी बिन्दु के विस्तार से योगी संयम शक्ति की सहायता और ज्योतिष्मति प्रकृति की सहयोगिता से अनेक गुप्त विषय और जलमग्न या पृथ्वी गर्भस्थित समस्त द्रव्य समूह के देखने में समर्थ हो सकता है ।।
१०– सूर्य नारायण में संयम करने से योगी को यथाक्रम सूक्ष्म और स्थूल लोकों का ज्ञान हो जाता है ।।
स्थूल लोक प्रधानता यही मृत्यु लोक हैं, सात स्वर्ग तथा सप्त पाताल यह सूक्ष्म लोक कहलाते हैं। अन्यान्य निकटस्थ ब्रह्मण्डों का ज्ञान लाभ करना भी सूक्ष्म लोक से सम्बन्ध युक्त ज्ञान है ।।
११– चन्द्रमा में संयम करने से नक्षत्र व्यूह का ज्ञान होता है ।। ज्योतिष का सिद्धान्त है कि जितने ग्रह हैं उन सब में चन्द्र एक राशि पर सबसे बहुत ही कम समय तक रहता है। इसके प्रत्येक तारा व्यूह रूपी राशि की आकर्षण विकर्षण शक्ति के साथ चंद्रमा का अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः उसी शक्ति के अवलम्बन से नक्षत्रों का पता लगाने में चन्द्र की सहायता सुविधाजनक हैं ।।
१२– ध्रुव में संयम करने से ताराओं की गति का पूर्ण ज्ञान होता है ।।
१३– नाभि चक्र में संयम करने पर योगी को शरीर के समुदाय का ज्ञान होता है ।। शरीर के सात स्थानों में सात चक्र है, उनमें छः चक्रों में साधन करके सिद्धि प्राप्त करने पर या होने पर सातवें चक्र में पहुंचने पर मुक्ति प्राप्त होती है ।
षट्चक्रों में नाभि के पास जो तीसरा चक्र है। उसमें संयम करने से शरीर में किस प्रकार का पदार्थ किस प्रकार से है, वात, पित्त और कफ यह तीन दोष किस प्रकार से हैं, चर्म, रुधिर, मांस, डाड़, चर्बी, वीर्य और नख यह सात वस्तुएं किस रीति से हैं, नाड़ी आदि कैसी कैसी हैं इन सब का ज्ञान हो जाता है ।।
१४– कंठ के कूप में संयम करने से भूख और प्यास निवृत्त हो जाता है ।।
मुख के भीतर उदर में वायु और आहारादि जाने के लिए जो कंठ छिद्र हैं उसी को कंठ कूप कहते हैं । यहीं पर पाँचवाँ चक्र स्थित है इसी से क्षुत्पिपासा की क्रिया का घनिष्ठ सम्बन्ध है ।।
१५– ‘कर्म’ नाड़ी में संयम करने से स्थिरता होती है ।। पूर्वोक्त कंठ कूप में कच्छप आकृति की एक नाड़ी है। उसको कूर्म नाड़ी कहते हैं। उस नाड़ी से शरीर की गति का विशेष सम्बन्ध है ।। इसी से वहां संयम करने पर शरीर स्थिरता को प्राप्त होता है। योगी का मन इस नाड़ी में प्रवेश करते ही अपनी स्वाभाविक चंचलता को छोड़ देता है ।।
१६– कपाल की ज्योति में संयम करने से योगी को सिद्ध गणों के दर्शन होते हैं ।।
मस्तक के भीतर कपाल के नीचे एक छिद्र है, उसे ब्रह्मरन्ध्र कहते हैं ।। उस ब्रह्मरन्ध्र में मन को ले जाने से एक ज्योति प्रकाश नजर आता है, उसमें संयम करने से योगी को सिद्ध महात्माओं के दर्शन होते हैं ।। जीवकोटि से उपराम होकर दृष्टि के कल्याणार्थ ऐसी शक्तियों को धारण करके एक लोक से लोकान्तर में विचरण करने वालों को ही सिद्ध या महात्मा कहा जाता है जो चतुर्दश भुवनों में ही विराजते हैं ।।
१७- ‘प्रातिम’ संयम करने से योगी को सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होती है ।।
{साधन करते-करते योगियों को एक तेजोमय तारा, ध्यानावस्था में दिखलाई पड़ता है । उसी का नाम ‘प्रातिम’ है}
चंचल बुद्धि वाले मनुष्य उस तारा का दर्शन नहीं कर सकते । योगी की बुद्धि जब शुद्ध होकर स्थिर होने लगती है तभी उस भाग्यवान् योगी को प्रातिम के दर्शन होते हैं। इसी प्रातिम को स्थिर कर उसमें संयम करने से योगी ज्ञान राज्य की सब सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है ।।
१८– हृदय में संयम करने से योगी को चित्त का ज्ञान होता है ।।
चतुर्थ चक्र का नाम हृत्कमल है । इससे अन्तःकरण का एक विलक्षण संबंध है । चित्त में नये पुराने सभी प्रकार के संस्कार रहते हैं, चित्त के नचाने से ही मन नाचता है। चित्त का पूर्ण स्वरूप महामाया की माया से जीव पर प्रकट नहीं होता है। जब योगी हृत्कमल में संयम करता है तब वह अपने चित्त पूर्ण का ज्ञाता बन जाता है ।।
१९– बुद्धि पुरुष से अत्यंत पृथक है । इन दोनों के अभिन्न ज्ञान से भोग की उत्पत्ति होती है, बुद्धि परार्थ है, उससे भिन्न स्वार्थ है, उसमें अर्थात् अहंकार शून्य चित्त प्रतिबिम्ब में संयम करने से पुरुष का ज्ञान होता है ।।
बुद्धि पुरुष का जो परस्पर प्रतिबिम्ब – संबंध से अभेद ज्ञान है वही पुरुष निष्ठ योगी कहलाता है ।।
बुद्धि दृश्य होने से उसका भोग रूप प्रत्यय पदार्थ यानी पुरुष के लिये ही है । इस पदार्थ से अन्य जो स्वार्थ प्रत्यय हैं यानि जो बुद्धि प्रतिबिम्बित चित्त सत्ता को अवलम्बन करके चिन्मात्र रूप है,
उसमें संयम करने से योगी को नित्य, शुद्ध, बुद्ध युक्त स्वभाव पुरुष का ज्ञान हो जाता है ।
२०– बुद्धि के मलिनभाव से रहित शुद्धभाव भय, जब अहंकार से शून्य, आत्मज्ञान से भरी हुई जो चिद्भाव की दशा है, उसी को जानकार उसमें जब योगी संयम करता है तब उसको पुरुष के स्वरूप का बोध हो जाता है ।।
इस परा सिद्धि के प्राप्त होने पर योगी को ‘प्रातिम’ श्रावण, वेदन, आदर्श, आस्वाद और वार्ता, नामक षट्सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है ।।
योग-विज्ञान —
पं. बलराम शरण शुक्ल
नवोदय नगर — हरिद्वार