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हमारा देश भारत और हमारी राष्ट्रीय सामाजिक कुरीतियाँ

सामाजिक कल्याण और लोक मंगल: एक विश्लेषण

आज के वर्तमान परिदृश्य में मेरा और ज्यादातर निर्विवादित, निष्पक्ष और निर्भीक सोच के भारतीयों का यह मानना है कि लोकतन्त्र का केवल चौथा स्तंभ ही भटका और भ्रमित नहीं है; बल्कि पहले तीन स्तंभ विधायिका, कार्य पालिका और न्याय पालिका सभी में भटकाव की स्थिति है और यह स्थिति मात्र स्वार्थ वश है, सत्ता लोलुपता वश है। जब तक समाज में स्वार्थ की प्रवृत्ति हावी रहेगी तब तक सत्ता स्वार्थ समाज को लोकतन्त्र के किसी भी स्तंभ के द्वारा नियंत्रित व नियमित कर पाना सम्भव नहीं है और साथ ही इसमें लोक यानी हमारे समाज का भी उतना ही उत्तरदायित्व है।हमें भारतीय संस्कृति एवं सनातन परंपराओं के प्रति सजग व सतर्क रहना है साथ ही सामाजिक व राजनैतिक तथा धार्मिक कुरीतियों से सावधान रहना होगा।

आज देखा जा रहा है कि भगवान श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्र पाल और विनोबा भावे आदि जैसे महापुरुषों के आदर्शों को भुलाकर आधुनिकता का नंगा नाच जैसा परिदृश्य यत्र तत्र सर्वत्र स्थापित हो चुका है और उनके आदर्शों को ही नहीं उन महापुरुषों को भी नकार दिया गया है, जिसका प्रतिकार करने का साहस न लोकतंत्र और समाज के किसी स्तंभ में है और न किसी व्यक्ति में!
यदि कोई ऐसा व्यक्ति सामने आता भी है तो उसे दुत्कार दिया जाने का ज़ोर शोर के साथ शोर मचाया जाता है।
निश्चय ही किसी भी राष्ट्र व समाज के लिए यह स्थिति लोकतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था को नकारने के लिए काफ़ी है।
हमारे देश के परिपेक्ष में भारत के हर व्यक्ति, हर नागरिक का यह दायित्व है कि देश में लोकतंत्र और सामाजिक संस्कृति को बचाने के लिये अपने कर्तव्य तन मन धन से निभाये जायें। सही को सही और गलत को गलत कहने की हिम्मत जुटायी जाये।
इसके साथ ही देश में राजनीतिक शुचिता की जो कमी व्याप्त है उसका उत्कर्ष और उसे उत्कृष्ट करने के लिये हर वर्ग को आगे आना होगा।

संविधान में निहित अधिकारों को भोगने के पहले हर नागरिक को अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। मान्य सामाजिक परंपराओं को सहेजना होगा और दहेज प्रथा, लैंगिक असमानता, बुजुर्गों का उत्पीड़न, धार्मिक असहिष्णुता जैसी कुरीतियों पर नियंत्रण कर समाज और राष्ट्र को सही दिशा में ले जाना होगा।

सामाजिक दृष्टि से संस्कार शीलता धार्मिक अनुष्ठानों से ज़्यादा महत्वपूर्ण है, जहाँ एक ओर हमारी धार्मिक प्रवृत्ति विकसित हो रही है, जो अच्छी प्रवृत्ति है, उसके साथ ही दूसरी ओर हमारे संस्कारों का परिष्कृत होना और विकसित होना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

इसके लिये भारतवासियों को अपने राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मतभेद भुलाकर एक होने की नितान्त आवश्यकता है, ताकि देश की स्वतंत्रता, सामाजिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था को न केवल अक्षुण रखा जा सके बल्कि और मजबूती प्रदान की जा सके।

डा० कर्नल आदि शंकर मिश्र
‘आदित्य’, ‘विद्यावाचस्पति’
लखनऊ:

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