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परम आनंद ढूॅंढ


ढूॅंढ़ ढूॅंढ़ ,
क्या ढूॅंढ़ रहा है तू ,
ढूॅंढ़ ढूॅंढ़ ,
परम आनंद तो ढूॅंढ़ ।
बहुत ढूॅंढा़ तू किताबों ,
बहुत ढूॅंढा़ तू अखबारों में ,
ढूॅंढ़ते ढूॅंढ़ते ढूॅंढ रहे हो ,
गलियों में चौबारों में ।
ढूॅंढ़ ढूॅंढ़ ,
खूब तू ढूॅंढ़ ले ,
महलों में राज दरबारों में ,
धूल के तू कण कण में ढूॅंढ़ ।
ढूॅंढ़ रहा तू जगत में ,
ढूॅंढ़ रहा तू अंतरीक्ष में ,
ढूॅंढ़ रहा तू जन जन में ,
ढूॅंढ़ रहा तू परोक्ष में ।
ढूॅंढ़ ढूॅंढ़ ,
ढूॅंढ़ रहा कहाॅं तू है ,
ढूॅंढ़ ढूॅंढ़ ,
न इधर ढूॅंढ़ न उधर ढूॅंढ़ ।
ढूॅंढ़ रहा क्या तू है ,
ढूॅंढ़ना भी तुझे क्या है ,
तुम्हें चाहिए धन दौलत शोहरत ,
इसी में खुद को गॅंवा गए ।
ढूॅंढ़ ढूॅंढ़ ,
तू मन से ढूॅंढ़ ,
मृग सा तू भटक रहा है ,
परम आनंद निज अंतस में ढूॅंढ़ ।
जल रहा दीप तेरे अंतस में ,
ढूॅंढ़ने को तू चला कहाॅं ,
ढूॅंढ़ रहा तू दूसरे के घर में ,
आती तुम्हें है चैन कहाॅं ।
ढूॅंढ़ ढूॅंढ़ ,
चैन से ढूॅंढ़ ,
दे दे तू नैन को चैन ,
फिर निज अंतस में ढूॅंढ़ ।

पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )
बिहार ।

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