
प्रथम खण्ड : अधूरे घाव
कुछ घाव ऐसे हैं
जिन पर समय भी मरहम नहीं रखता।
वे रिसते रहते हैं—
जैसे इतिहास की हड्डियों में धँसे
अधूरे अपराध।
शरीर मिट्टी में मिल जाता है,
पर इच्छाएँ—
भूत-प्रेत की तरह
सभ्यताओं के खंडहरों में
भटकती रहती हैं।
मनुष्य जीते-जी भी भटकता है,
मरने के बाद भी।
द्वितीय खण्ड : काल का साम्राज्य
काल—
सिर्फ़ घड़ी की टिक-टिक नहीं है।
वह एक असीम साम्राज्य है,
जिसकी दीवारें
हज़ारों साल पुरानी चीख़ों से बनी हैं।
फ़राओ की समाधियाँ,
यूनान के दार्शनिक,
भारत के राजे-महाराजे—
सब उसी साम्राज्य के
खामोश क़ैदी हैं।
आज का मनुष्य भी
तकनीक के मंदिर में
दीपक जलाता है,
यह सोचकर—
“मैं नहीं मरूँगा।”
तृतीय खण्ड : विज्ञान का छलावा
विज्ञान—
एक अधूरा देवता है।
लोहे का खंडहर,
जहाँ अमरत्व का वादा
सिर्फ़ अमीरों को मिलता है।
ग़रीब की हड्डियाँ
मिट्टी में मिल जाती हैं,
अमीर की इच्छाएँ
काँच की प्रयोगशालाओं में
झिल्ली ओढ़ लेती हैं।
सभ्यता का यह बाज़ार
मृत्यु तक को बेचता है।
यहाँ जीवन—
निवेश है,
और मृत्यु—
लाभांश।
चतुर्थ खण्ड : राजनीति और पूँजी का व्यंग्य
राजनीति—
झूठे झंडों के नीचे
कब्रें खोदती है।
युद्ध में मरे जवान
“राष्ट्र की विजय” कहलाते हैं,
कारख़ानों में मरे मज़दूर
“प्रगति का ईंधन।”
पूँजीपति—
मृत्यु को भी निवेश बना देता है।
ग़रीब—
जीवन को भी बोझ समझता है।
सभ्यता—
ख़ून और राख का उत्सव है,
जहाँ मनुष्य
अपने ही श्रम से बना
कैदी है।
पंचम खण्ड : भ्रम और क्षमा
मनुष्य—
बार-बार धोखा खाता है।
कभी मूर्तियों में अमरत्व खोजता है,
कभी मशीनों के कोड में।
कभी राजनीति के भाषणों में मुक्ति,
कभी पूँजी के विज्ञापनों में अमरता।
जब भ्रम टूटता है,
वह गिर पड़ता है—
गलतियों और अपराधों के मलबे में।
फिर थरथराता हुआ
भगवान से क्षमा माँगता है…
जैसे क्षमा भी
किसी भूली हुई प्रयोगशाला की
टूटी हुई मशीन हो।
षष्ठ खण्ड : आत्मा की अनंत यात्रा
आत्मा—
अनंत गलियारों में भटकती रहती है।
न उसे ठिकाना मिलता है,
न विश्राम।
हर पीढ़ी
उसी अधूरे आविष्कार का हिस्सा बनती है।
हर पीढ़ी सोचती है—
“हम अमर हो जाएँगे।”
पर हर बार
उसी पुराने भ्रम की राख
आँखों में भर जाती है।
सप्तम खण्ड : नियति
शायद यही मनुष्य की नियति है—
भटकना,
तृष्णा में डूबना,
काल के अंधकार से लड़ना,
और अंततः
अपनी ही छाया में गिर जाना।
क्योंकि जीवन,
मृत्यु,
और अमरत्व—
तीनों ही
एक अधूरे स्वप्न की
अलग-अलग छवियाँ हैं।