
“चला गया संसार छोड़कर जिसका पालन हारा
पड़ा चेतना हीन जहां पर वज्रपात दे मारा”
मैं मृत्यु भोज को सार्थक और उचित मानती हूं। जिसको करने से हमारे पूर्वजों की आत्मा तृप्त होती है। उसे मैं कदापि दरकिनार नहीं कर सकती…?
भारतीय वैदिक परंपरा में 16 संस्कारों का व्यक्ति के जीवन में खास महत्व है। मृत्यु यानी अंतिम संस्कार इन्हीं में से एक है। इसके अंतर्गत मृतक के अग्नि या संस्कार के साथ पिंडदान किया जाता है और इस दिन 13 ब्राह्मणों को सात्विक भोजन करवाया जाता है।
मृत्यु भोज से पहले शुद्धि यज्ञ होता है वह परिवार जिसमें मृत्यु हुई है उस समय के बाद शुभ कार्य करने के लिए योग्य हो जाता है। सभी अपने बंधु- बांधव आते हैं और उसे परिवार को संतान देते हैं और भोज करके यह स्वीकार कर लिया जाता है कि अब इनके परिवार की अपवित्रता समाप्त हो गई है।
मृत्यु भोज परिवार में से किसी भी सदस्य की मृत्यु होने पर उसके पीछे लोगों को भोजन सेवन करने के लिए आमंत्रित कर प्रीतिभोज करवाया जाता है,किसी भी मृतक के पीछे भोजन सेवन करवाने को ही मृत्यु भोज कहते हैं।
ऐसी मान्यता है कि ब्राह्मणों को भोजन करवाने से उसे मृत व्यक्ति के सारे पाप धुल जाते हैं, साथी यमलोक के मार्ग में भी परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता है। यही कारण है कि हिंदू धर्म में इसकी इतनी महत्ता है है।
13वीं मनाने के पीछे एक वैज्ञानिक कारण भी है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के मुताबिक अगर कोई 13 दिन की सीमा के अंदर उदासी और शौक से ना निकल जाए तो वह मानसिक रूप से रोगी हो सकता है। यही वजह है की मृत्यु के बाद 13वीं के लिए 13 दिन सुनिश्चित किये गए हैं। इसी कारण से हिंदू धर्म में इस परंपरा को खास माना जाता है इसके बाद इसके बाद उसे व्यक्ति के परिवार जनों को अपने रोजाना के कार्य आरंभ करने होते हैं।
हमारे धार्मिक ग्रंथ जैसे गरुड़ पुराण, पितृ संहिता वेदों में अनेकानेक जगह यह वर्णित है कि मृत प्राणी दिए गए भोजन का अंश मात्र या भाव स्वरूप विद्यमान उसे भोजन का भाग ग्रहण करता है। मृत्योपरांत भोजन करना हमारे लिए धर्म और संस्कृति का अंग है। शास्त्र कहता है कि हम अपने सामर्थ्य के अनुसार ब्राह्मणों एवं बहनों अग्नियों, बेटियों को भगवान का प्रसाद बनाकर भोजन की आग देता है। आज के भौतिकवादी घर के सदस्य की मृत्यु की अंतिम शोक सभा भी श्मशान में ही कर देते हैं ये कहां तक उचित है…?
आगे कोई मृत्यु भोज नहीं करते हैं आगे कोई मृत्यु भोज नहीं करते हैं। क्या जिंदगी भर अपने साथ जीवन बिताने वाले को हम वहीं भुला दें…?
बहुत लोगों का कहना है कि यह सब फालतू का खर्च है..? यदि आपको अपव्यय की इतनी ही चिंता है तो शादी- विवाह में जो हो रहे हैं आवश्यक खर्चों में क्यों नहीं कटौती करते..?
मृत प्राणी के पीछे किया गया भोजन अन्नदान के रूप में आता है। यह सभी धर्म एकमत से स्वीकार करते हैं कि अनुदान से बड़ा कोई दान नहीं है।
अन्नदान उस मृत व्यक्ति के पीछे अपने स्वजन,सन्यासियों या भूखे व्यक्ति को किया जाता है, इसमें किसी प्रकार का दिखावा या महंगा भोजन नहीं होता।
जो संस्कार सदियों से चले आ रहे हैं उसे हम कैसे नकारेंगे। वो भी पूर्वजों को जहां खुश करने की बात हो।
डॉ मीना कुमारी परिहार