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समाधि पाद

         
               सूत्र-- ११

अनुभूतिविषयाऽसम्प्रमोषः स्मृति: ।
अनुभूतविषयाऽसम्प्रमोषः= अनुभव किए हुए विषय का नाम छिपना अर्थात् प्रकट हो जाना; स्मृति:= स्मृति है ।
अनुवाद– अनुभव किए हुए विषय का विस्मरण ही स्मृति है ।
व्याख्या– इन्द्रियों तथा मन से अनुभव किये विषयों के संस्कार चित्त पर पड़ते हैं उनका पुनः किसी निमित्त को पाकर प्रकट हो जाना ही ‘स्मृति’ है । संसार में अच्छे रहकर अच्छे, बुरे, सामान्य, असामान्य, आनंदप्रद, कटु, क्रोध, घृणा, द्वेष आदि से अनेक प्रकार के कर्म किए जाते हैं तथा मन द्वारा सोचे जाते हैं । उनका उसमें जिनका गहरा अनुभव होता है तथा जो बात गहराई तक प्रविष्ट हो जाती है वे ही संस्कार कहलाते हैं ।
यह संस्कार चित्त पर स्थाई रूप से पड़ते हैं जिनका प्रभाव अनेक जन्मों तक रहता है, जब उनका भोग समाप्त नहीं हो जाता ।
यह संस्कार अच्छे, बुरे और मिश्रित तीनों प्रकार के होते हैं । साविकल्प समाधि में ये ही स्मृतियाँ रहती हैं । जब ये स्मृतियाँ नहीं रहती तो इसी को निर्विकल्प समाधि कहते हैं । किन्तु बीज रूप में ये विद्यमान रहती हैं जिससे व्यवहार के समय इनका उपयोग किया जाता है जा सकता है ।
चित्त पर पड़े संस्कार जब जागते हैं तभी उन्हें ‘स्मृति’ कहते हैं । जब इस वृत्ति से आत्मज्ञान में उत्साह बढ़ता है तो यह अक्लिष्ट {विद्या} तथा भोगों में रुचि बढ़ती है तो यह क्लिष्ट {अविद्या} कहलाती है ।
स्रोत– पतंजलि योग सूत्र
लेख व प्रेषण– पं. बलराम शरण शुक्ल नवोदय नगर हरिद्वार ।

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