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” घर की चौखट”

छूटी गलियां , गांव गलियारे…
ना वापस जाने की, राह है सूझे।
सूना आंगन, बेजान सा घर…
घर की चौखट, राह निहारे।

दुनिया से, कदम मिलाने…
लांघीं जब से, घर की चौखट।
गुज़री जाने, कितने दिन और रातें..
जब याद ना आई, घर की चौखट।

सूना है अब, घर का हर कोना…
यूं ही, आलस में पड़ा बिछौना।
दीवारें भी, अब नहीं है, बातें सुनती…
बस, घर की चौखट को है देखती।

खिड़की- दरवाजों में, ठनी हुई है..
जर्जर होते हुए भी, तनी हुई है।
पर्दे भी, अब कहां सरसराते….
बस, घर की चौखट को ही ताकें।

कहते, रूठा है, जरा मना लो ना..
अंक में अपने, फिर से भर लो ना।
लांघ के गया, जब से तुमको…
अब तुम ही, वापस लाओ ना।
खिल उठेगा, घर का हर कोना…
खुशियों के दीप, जलाओ ना।

उर्मिला ढौंडियाल ‘उर्मि’

देहरादून (उत्तराखंड)

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