
नाग देवता की उत्पत्ति का
पावन पर्व
नाग पंचमी
नाग देवता की उपासना
और आराधना का अवसर
‘नाग पंचमी’
हमारी भारतीय संस्कृति में हमेशा यही बताया गया है कि नाग देवता परम पूज्य और वंदनीय होते हैं। क्षीरसागर में पवित्र शेषनाग की शैय्या पर भगवान विष्णु जी विश्राम करते हैं। नागदेव के समस्त सहस्त्रों फनों पर ही यह संपूर्ण पृथ्वी टिकी हुई है। नाग पंचमी का त्योहार सावन माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन इस पुण्य श्लोक से “अनंतम् , वासुकि, शेषम् , पद्मनाभम् , चकम्बलम् , करकोतम् , तक्षकम् ” नागदेव की स्तुति करनी चाहिए।
पुराने समय में हम सभी बच्चों को सर्प देवता के लिए कच्चे दूध में शहद, चीनी या थोड़ा गुड़ डालकर सांप की बांबी या बिल के पास डालने के लिए कहा जाता था। सांप के बिल की मिट्टी लेकर घर के कोनों , चक्की और चूल्हे पर तथा दरवाजे के निकट द्वार पर सांप बनाये जाते थे। इन की भीगे बाजरे और घी, गुड़ से पूजा के बाद, दक्षिणा चढ़ा कर घी के दीपक से आरती की जाती थी।
इस पर्व पर जन मानस में कई कहानियां प्रचलित हैं। इनमें से एक कहानी यहां पर प्रस्तुत है।
मनीपुर नगर में एक किसान परिवार रहता था उसके दो पुत्र और एक पुत्री थी। एक दिन उसके हल के फल से बिंध कर सांप के तीन बच्चे मर गये। बच्चों की मां नागिन ने पहले तो बहुत विलाप किया, फिर अपने बच्चों को मारने वाले से बदला लेने का निश्चय किया। रात में नागिन ने किसान,उसकी पत्नी और दोनों बेटों को डंस लिया। अगले दिन नागिन उसकी कन्या को डंसने चली तो कन्या ने डर कर उसके आगे दूध का कटोरा रख दिया और हाथ जोड़कर क्षमा मांगने लगी। उस दिन नाग पंचमी थी। नागिन ने प्रसन्न होकर लड़की से वर मांगने को कहा। लड़की ने वर मांगा कि मेरे माता-पिता और दोनों भाई जीवित हो जाएं और जो आज के दिन नाग देवता की पूजा करे उसे कभी भी नाग के डंसने की बाधा न हो। नागिन लड़की को वरदान देकर चली गई। तभी किसान, उसकी स्त्री और दोनों पुत्र जीवित हो गये।
उपरोक्त कथा हमें यह बात बताती है कि सृष्टि में उत्पन्न हर जीव का अपना अलग महत्व है। पर्यावरण संरक्षण के लिए हर जीव- जंतु की अपनी उपयोगिता है। पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित रखने के लिए हर जीव की आवश्यकता है।
सृष्टि में उत्पन्न हर जीव यथा सर्प, बिच्छू और साही तथा नेवला, गिलहरी इत्यादि अन्य सभी का जीवन महत्वपूर्ण है। यह सभी मृदा संरक्षण में और फसलों के उत्पादन में अपना मूक योगदान देते हैं। हमें इनके जीवन के लिए भी सोचना चाहिए। वास्तव में हमारी संस्कृति और सभ्यता ” सर्वे भवन्तु सुखिन: अर्थात सभी के जीवन की उन्नति और विकास की कामना का उद्घोष करती है।
शुभस्य शीघ्रम
संध्या दीक्षित