
जो पूरन करते आश सभी की,
भोला भण्डारी कहलाते।
जग उनके चरणों में झुकता,
जो सबको सम्मान दिलाते।।
आशीर्वाद मिले शिव का जो,
नर पाता ऊँचाई है।
शिव बिन मनुज लगे शव जैसा,
ज्यों लगे अँधेरी खाई है।।
शिव-गौरी दो रुप हैं ऐसे,
ज्यों श्रद्धा-विश्वास प्रखर।
हैं दाम्पत्य नींव के ये दो,
प्रबल, सुखद आधार सुघर।।
हो शिव का आशीष सभी पे,
सब पर कृपा सदा करना।
हो जग के अराध्य तुम हरजी,
सबकी अर्जी तुम पढ़ना।।
गल में माल सर्प की सोहे,
मस्तक मध्य त्रिपुण्ड महा।
शशि, गंगा दोउ सोहें जटा में,
कितना अद्भुत रुप अहा!!
हैं श्मशान वासी, कहलाते,
औघड़ बाबा तुम दानी।
भाव विमल लख खुश हो जाते,
कही न गौरी की मानी।।
भक्तों का तुम मान सदा ही,
रखना, रखते आये हो।
आशीर्वाद मिले शिव का तो,
भव-बन्धन कट जाये हो।।
है मृगछाल कमर पर शिव के,
गिरी, गुफाओं में रहते।
सबको देते वस्त्राभूषण,
गर्मी, शीत, वारि सहते।।
सबको देते हो मकान तुम,
रहते स्वयं खुले मैंदान।
रहते लीन सदा तुम तप में,
पड़े वक्त तो जा श्मशान।।
अंग विभूति रमाय, कपालिक,
बनकर सदा विचरते हो।
जिस पर छाया पड़े तुम्हारी,
उसका तुम दु:ख हरते हो।।
आशीर्वाद तुम्हारा पाने,
सारा जग तुमको भजता।
निज भक्तों की रक्षा करते,
वचन नहीं निज का डिगता।।
पूरणब्रह्म, अनादि, अनामय,
हो अव्यक्त, अगोचर तुम।
अलखित गति, तुम परे सभी से,
रुद्र रुप हो हनुमद तुम।।
तुम्हारी कृपा सदा हो सब पर,
सभी सुखी, आरोग्य लहें।
निर्भय निज कर्तव्य-कर्म कर,
पालन करें, जो गुरु कहें।।
मातु-पिता, गुरु, शिव को मानें,
गौरी व गणेश को जानें।
परस्वारथ हित सदा कर्म कर,
सत्य-झूठ अन्तर पहचानें।।
सात्विक भोजन, सात्विकता हो,
सभी कर्म में दिखती हों।
रहन-सहन, संयममय जीवन,
दु:ख की रेखाएँ मिटती हों।।
सरल-सहज हो जीवन निर्मल,
विमल भाव मन का आभूषण।
आठों पहर कृपा शिव की हो,
हो विकार से परे, सभी जन।।
तो होगा घर स्वर्ग तुम्हारा,
हो मिठास तव वाणी में।
शिव की कृपा, आशीष सदा ही,
मिले सदा ज्यों ज्ञानी में।।
रचनाकार-
पं० जुगल किशोर त्रिपाठी (साहित्यकार)
बम्हौरी, मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)