
कहानी,काव्यांश मे।।
जादुई पेड़ था इक रहा,जहा करते फल सब वास,
कामना थी बस करनी रही,और छोड़ना था वक्त के हाथ।।
और शर्त साथ मे थी रही,भुगतने आप परिणाम, जैसा ध्येय जिसका रहा,फलीभूत वही सब आप।।
जैसा बीज विचार था वैसा फल आचार, हित परहित सबुहुं आपने,किसी पे था न कछु भार।।
जानत न योगी रहा,जब जानत रहा वह आप,बतलाए तो,बात हँसी, हँसी करे जग ताप ।।
दिए प्रताप बताई के,प्रयोगों से आप,
रसरी आवत जावत ते,सिल पर पड़ती छाप।।
जीवन को भी समझाई दिए, क्या थे पहले कोई आप,
रघुराई या कृष्ण रहे,जीवन के सब चाप।।
थी फलीभूत को गाठरी, गगरी भरी कर्मन आप,
छलकत वही रस आप रहा,जो भरा गगरी बस आप।।
मूल को जान के सींचिए, शाखा और न पात,
मूल मे ही,प्राण बसे,बाक़ी सबहि विश्वास।।
संदीप शर्मा सरल।।देहरादून उत्तराखंड ।।