
(स्वरचित कविता)
वाद्य बजे, सुर छेड़े मन को,
ताल लगे जैसे थिरकाए जन को।
राग उठे जब वीणा से झर-झर,
भाव बहे, बन जाए नयनों का निर्झर॥
यह है बाह्य संगीत मधुर, मन भाए,
गायक गाए, बंसी स्वर लहराए।
हृदय झूमे, अंग पुलकित हो जाए,
संगीत से प्रेम की भाषा समझाए॥
पर जब मौन में नाद स्वयं बोले,
शून्य में कोई राग धीरे-धीरे डोले।
न वाद्य वहाँ, न स्वर का संयोग,
फिर भी भीतर जगे दिव्य संयोग॥
यह आंतरिक संगीत अनोखा अनंत,
ना कोई धुन, ना किसी शब्द का छंद।
चित्त की गहराई में जो तरंग उठे,
नादब्रह्म की ज्योति बन मन में पथ रचे॥
बाह्य दे दे आनंद को छूने का स्वाद,
आंतरिक कराए आत्मा से संवाद।
एक गूँजे बाहर, दे भावों को रूप,
दूजा भीतर नाचे, करे चेतन शुद्ध रूप॥
बाह्य में लय, रचना, कलारूप सजीव,
आंतरिक में समाधि, मौन का हो प्रवीण।
बाह्य से भीतर की सीढ़ी बन जाए,
आंतरिक में संगीत स्वयं ब्रह्म हो जाए॥
संगीत न केवल स्वर, यह चेतना की बात है,
सच्चा विलास वही, जो मौन में भी साथ है।
बाह्य और आंतरिक, दो छोर नहीं, एक धार हैं,
एक रस की सरिता, दूजा नाद की पुकार है॥
योगेश गहतोड़ी