
हमारे उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों की यादें मेरे मन में आज भी किसी झरने की तरह बहती रहती हैं। कभी शीतल, तो कभी थोड़ी चुभन भरी। ये वो स्मृतियाँ हैं, जो न पूरी तरह हँसाती हैं, न पूरी तरह रुलाती हैं, लेकिन हर बार दिल को कहीं न कहीं छू जाती हैं।
बचपन के वे दिन, जब देवदार और बाँज के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की छांव में धूप और ठंडी हवा आपस में अठखेलियाँ करती थीं—हम बच्चे भी उसी प्रकृति के संग झूमा करते थे। हर सुबह मंदिर में बूढ़ी अम्मा की घंटियों की टनटन और चिड़ियों की चहचहाहट से होती थी। वो मंदिर की सीढ़ियाँ, जिन पर हम नंगे पाँव दौड़ते थे, आज भी मेरी स्मृतियों में अंकित हैं जो इन खट्टी-मीठी यादों का एक अमिट हिस्सा हैं।
जब हम छोटे थे, तब गांव की बुजुर्ग माताएं भी खेतों में काम करती दिखती थीं। पूरा गांव एक परिवार की तरह लगता था। दूध, दही और छांछ सभी घरों में आपस में बांटे जाते थे। तब गांवों में अस्पताल नहीं थे, लेकिन “दाइयों” को बड़ा सम्मान था। जिस घर में बच्चा जन्म लेता, वहां दाई को सम्मानपूर्वक बुलाया जाता और वह पूरे गांव की एक मान्य सदस्य मानी जाती थी। यही थीं खट्टी-मीठी यादें, जो उस समय की सादगी और अपनत्व को उजागर करती हैं।
बचपन में माँ के हाथ की झंगोरे की खीर, मंडुवे की रोटी और खेतों से आई ताज़ी साग की सुगंध आज भी ज़ुबान पर स्वाद और मन में सुकून दे जाती है। दाडिम के पेड़ों में लगे खीरे बिना माँ को बताए तोड़ लेना, खेतों से मटर चुराकर खाना और पकड़े जाने पर डांट की जगह हँसी का फुहार—इन खट्टी-मीठी यादों ने जीवन को रंगों से भर दिया था।
लेकिन इन्हीं यादों में कुछ सच्चाइयाँ भी थीं, जो आज भी मन को हल्का-सा चुभो जाती हैं। सर्दियों की वे लंबी रातें, जब बाहर बर्फ गिरती थी और स्कूल बंद हो जाते थे, लेकिन घर के काम कभी बंद नहीं होते थे। पहनने को गर्म कपड़े भी कम होते थे। जंगल से लकड़ियाँ लाना, मवेशियों के लिए चारा काटना और कई बार दूर-दराज़ से पानी भर लाना, ये सब भी उसी बचपन का हिस्सा थे। ये भी थीं मेरी खट्टी-मीठी यादें, जो सिखा गईं कि संघर्ष भी जीवन का एक सुंदर पहलू हो सकता है।
सबसे ज्यादा मन को आज भी जिस बात की टीस है, वह है गांव की लड़कियाँ—जो कई बार स्कूल की दूरी और सामाजिक बंदिशों के कारण पढ़ाई बीच में ही छोड़ देती थीं। यह उस समय का एक कटु यथार्थ था, जिसे देखकर मन आज भी बेचैन हो उठता है। खट्टी-मीठी यादें कभी-कभी कराहती भी हैं।
रात की चौपालें, जब दादी-नानी की कहानियाँ सुनने सब एक साथ बैठते थे—परियों की बातें, वीरों की गाथाएँ और लोककथाओं की मिठास से भरी वे रातें आज भी मन के किसी कोने में जीवित हैं। माँ से लिपटकर डर से सिमटना और फिर कहानी में खो जाना—इन लम्हों ने बचपन को एक सपना बना दिया।
आज जब मैं शहर की भीड़-भाड़, शोर और मशीन जैसे जीवन में उलझा होता हूँ, तब मन बार-बार उन्हीं पहाड़ी पगडंडियों की ओर लौट जाना चाहता है, जहाँ न दिखावा था, न लालच—बस सादगी, अपनापन और रिश्तों की गर्माहट थी।
यही खट्टी-मीठी यादें हैं, जिन्होंने मुझे जीवन की असली सुंदरता समझाई, मुझे आकार दिया, मेरे भीतर की जड़ों को मजबूत किया। जब जीवन थक जाता है, जब मन ऊब जाता है, तब मैं आँखें बंद करके उन्हीं पगडंडियों पर लौट जाता हूँ, जहाँ बचपन आज भी किसी शाख पर झूला बनकर लटका है और मेरी हँसी पहाड़ों की गूंज में कहीं बसी हुई है।
अंततः यदि सच कहूँ तो—यही खट्टी-मीठी यादें ही मेरी सबसे अमूल्य धरोहर हैं।
योगेश गहतोड़ी