Uncategorized
Trending

शिक्षक

जिसके मस्तक पर भाल प्रखर,
जिससे होता नित सूर्य निखर।
जिसका उत्ताप न सह कोई,
कर इनका विरोध सब पड़े बिखर।।

जिसके नैंनों का ओज थाम,
शशि शीतलता फैलाता है।
जिसका अधरामृत लेकर ये,
सुन नीलगगन इठलाता है।।

जिसकी राहों में सुमन झरें,
सब शीश झुकाते हैं झुककर।
जिसकी मुस्कान मनोहर लख,
सब अहं भुलाते हैं थककर।।

जो जीवन को देता गति है,
जिसके श्रम-बिन्दु अगर झलकें।
हो नष्ट सकल ब्रह्माण्ड सुनो,
जिसकी अँखियाँ, अलकें दमकें।।

जो सरित-सिन्धु सा लहराकर,
सारे जग की पीड़ा हरता।
जो अपने हिस्से का जीवन भी,
औरों हित अर्पण नित करता।।

जिसकी धारा में सभी नहा,
संताप-ताप, निज अघ धोते।
जिसकी निर्झरणी में थककर,
आकर निज पाप सकल रोते।।

जिससे ये थमा सूर्य-शशि है,
ये ब्रम्ह ज्ञान जिससे मिलता।
अवतारी जिससे शिक्षित हों,
जिससे पुष्कर पुष्पित खिलता।।

जिसका न तोड़ कोई भी है,
जो मर्यादित, सत-पथ पर चल।
क्या सही, गलत की सीख देय,
जिससे हर दिशि में हलचल है।।

जिसकी लहरों पर नाच सकल,
इस जगतीतल में पले-बढ़े।
जिसका मान सदा रखने,
रण शीश कटाने कई खड़े।।

ये नौकर नहीं किसी का है,
है उदधि पखारे सदा चरण।
सब देव, देवि, परब्रह्म ईश,
देते करते सम्मान, नमन।।

वह तुच्छ नहीं जग से विराट,
इसको समझो अरू समझाओ।
जो देता ज्ञान सभी को है,
वह शिक्षक, मत इसको झुठलाओ।।

ये वीर, धीर, ज्ञानी, गुणमय,
ये उदधि ज्वार सा ले समेट।
महि, दिग्गज, गिरि सब रहे देख,
इसको, कहीं लगा न देय टेक।।

ये अगर बढ़े आगे सुनलो,
सारा वैभव थम जायेगा।
ये अगर भरे हुँकार तेज,
वो वैभव न आ पायेगा।।

ये सहज चाल से चलता है,
ये निज स्वभाव में रमता है।
क्या सही, गलत ये जान सदा,
ये सदा भले हित करता है।।

ये शिक्षक है, आचार्य रहा,
ये गुरू और विश्वास रहा।
ये सदियों से भारत माँ के,
माथे का दमकता तिलक रहा।।

इसको मत अधिक सताओ तुम,
ये तुमसे न कुछ माँग रहा।
करने दो अपने मन की इसे,
ये अपनी धुन में थिरक रहा।।

तुम रहो देख विश्वासी बन,
तेरा विश्वास न तोड़ेगा।
बच्चों का गुरु, इनके खातिर,
सब कुछ कर अर्पण छोड़ेगा।।

ये सदियाँ रही साक्षी हैं,
है दिया उजाला नित हमने।
दे रहे आज भी, मुश्किल में,
पड़कर भी, न पथ छोड़ा हमने।।

है कर्म हमारा शिक्षण का,
ये कार्य सदा हम ध्यान रखें।
बच्चे हैं धुरी देश की सो,
ये जान, न कोई स्वाद चखें।।

ये कर्म हमारा जीवन है,
सत्कर्म हमारी थाती है।
आदर्श जियें जीवन मिलकर,
इनसे ही खुशियाँ आती हैं।।

हम प्रेम-भाव फैलाते हैं,
छल-कपट, ईर्ष्या, द्वेष भगा‌।
हम सदा एक-रस रहते हैं,
है कौन देश हमसे न लगा।।

सब देख रहे हमको पल-पल,
सब वाट हमारी जोह रहे।
हमको ही दोषी ठहराते,
सबको बातों से मोह रहे।।

न सत्य जानता है कोई,
सच कड़वा, तीक्ष्ण सदा होता।
हिमगिरि बर्फीला पिघल-पिघल,
बह मन्द सदा सबको धोता।।

मैं सबका भाग्यविधाता हूँ,
मैं नव संजीवनि का निर्माता।
मैं रक्षक, पोषक, प्रेमपूर्ण,
मैं सबका शुभ जीवन दाता।।


पं० जुगल किशोर त्रिपाठी
बम्हौरी, मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *