
यूं ही नहीं भाने लगीं तन्हाइयां हमें,
इनकी भी लंबी दास्तान है।
रिश्तों की भीड़ से तन्हाई तक ,
कई मुकाम आए हैं।।
रिश्तों से था बेहद प्यार,
हर रिश्ता था बहुत ही खास।
दरिया बहता था अपनेपन का,
दिल में थी बस प्यार की प्यास।।
अपनेपन का दरिया सूखा,
बुझी न दिल की प्यार की प्यास।
दिल के यूं प्यासे रहने के,
सबब तमाम पाए हैं।।
रिश्तों की भीड़ से तन्हाई तक ,
कई मुकाम आए हैं।
जिन रिश्तों को संजोया प्यार से,
एहसासों के लिहाफ में।
तार तार वह हुआ लिहाफ,
स्वार्थ अहम की आंधी में।
झूठे रिश्ते हुए बेनकाब,
असली चेहरे सामने आए हैं।।
रिश्तों की भीड़ से तन्हाई तक,
कई मुकाम आए हैं।
रिश्तों की सुंदर बगिया में,
बीज स्नेह का बोया था।
विश्वास की बेला फैलेगी खूब,
सपना यही संजोया था।
संवेदना हीन ठूंठ से रिश्ते,
जाने क्यों नसीब में आए हैं।।
रिश्तों की भीड़ से तन्हाई तक,
कई मुकाम आए हैं।
कई मुकाम आए हैं।।
डॉ.दीप्ति खरे
मंडला(मध्य प्रदेश)