
अलसाई सी.. है धरा..
मुरझाई सी… है हवा..
है, करुण वेदन यह,
कैसा, धरा पर…
है, मातम सा मचा।
क्रुध क्यों है, प्रकृति…
यह कैसा…. शोर मचा।
है, मानव कुंभ्लाया…
जीर्ण सा…. और मरा।
हैं, छिनती सांसें सबकी….
क्यों ? ऐसा कोहराम मचा।
है, पहाड़ दरकते नदियां उफनती…
प्रकृति ने, यह कैसा विकराल रूप धरा।
कहीं…. सुलगते जंगल…
कहीं… उफनते नाले…
विकास, की दौड़ में ….
हमने विनाश को न्योता दिया।
काटे हरे- भरे पेड़, और जंगल…
कंक्रीट के…. ढेरों पर अब,
हो रहा….. विकास का दंगल।
आखिर प्रकृति भी कब तक यह सहती।
कभी ना कभी तो वह भी रौद्र रूप धरती।
उर्मिला ढौंडियाल ‘उर्मि’
देहरादून। ( उत्तराखंड )