
1.
नफ़रत की आँधी जब चलती, सबका चैन उड़ाती है,
मन को काले रंगों से ये, भीतर तक गहराती है।
प्रीति-प्यार की बगिया को ये, नफ़रत जला के जाती है,
द्वेष-दाह की चिन्गारी से, मानवता काँप उठती है।
2.
कुंठित मन जब बोल उठे, तब विष ही फैलाता है,
नेत्रों में जब द्वेष बसा हो, पतन वहाँ छा जाता है।
वाणी कटु औ’ व्यवहार कठिन, सबको पीड़ा देता है,
नफ़रत का यह बीज सदा ही, दिल में ज़हर उगाता है।
3.
छोड़ो अब ये राग-विराग, जो बस पीड़ा लाते हैं,
प्रेम-प्रकाश जलाओ मन में, जो रिश्ते महकाते हैं।
क्षमा, दया औ’ मेल बढ़ाओ, जीवन ये संवारेंगे,
शांति-राग की धुन से ही, सब नाग विष हारेंगे।
4.
मन का दर्पण मलिन करे जब, वैर भाव मन भीतर हो,
सच्चाई भी झूठ लगे तब, यदि द्वेष भरा अंतर हो।
अपनों को भी पराया जब, इंसान समझने लगता,
तब जीवन की हर राहों में, काँटा ही बिखरने लगता।
5
आओ हम सब साथ चलें, सद्भावों को अपनाएं,
नेह-स्नेह की गंगा बहा दें, कलुष भाव सब बह जाएं,
नफ़रत का यह रोग पुराना, केवल प्रेम मिटाता है,
दिल से दिल जब जुड़ता सच्चा, तब सुमन खिला करता है।
योगेश गहतोड़ी