
श्लोक:-
यज्ञैस्त्वमिज्यसेऽचिन्त्य सर्वदेवमयाच्युत।
त्वमेव यज्ञो यष्टा च यज्वनां परमेश्वर।।
(विष्णुपुराण 5/21/97)
अर्थः – हे अचिन्त्य ! हे सर्वदेवमय ! हे अच्युत ! समस्त यज्ञों से आप ही का यजन किया जाता है। हे परमेश्वर ! आप ही यज्ञ करने वालों के यष्टा और यज्ञस्वरूप हैं।
यह श्लोक विष्णुपुराण के पंचम भाग, अध्याय 21, श्लोक 97 में आता है। इसमें भगवान विष्णु की भक्ति और उनके सर्वत्र व्याप्त रूप का वर्णन किया गया है। यह प्रसंग उस समय का है जब भगवान विष्णु देवकी के पुत्र के रूप में प्रकट हुए और उनकी दिव्य महिमा का गुणगान किया गया।
इस श्लोक का मुख्य संदेश यह है कि भगवान विष्णु ही सभी यज्ञों के अधिपति हैं — वे स्वयं यज्ञ हैं, यजमान हैं (जो यज्ञ करता है) और यज्ञ करने वाले भी वही हैं। इसका अर्थ यह है कि पूजा, पूजक और पूज्य — तीनों रूपों में एक ही परमात्मा समाया है।
ईश्वर की उपासना केवल एक क्रिया नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक एकता का अनुभव है, जहाँ सब कुछ उसी एक परम शक्ति में समाहित हो जाता है। इस प्रकार, यह श्लोक भक्ति (श्रद्धा), कर्म (कर्मयोग) और ज्ञान (आत्मबोध) को एक साथ जोड़ता है और भगवान विष्णु के परम रूप को सरलता से प्रकट करता है।
पदव्याख्या सहित शब्दार्थ —
यज्ञैः — यज्ञों के द्वारा; यज्ञ एक वैदिक कर्म है, जिसमें अग्नि में आहुति दी जाती है।
त्वम् — तुम; संबोधन रूप में भगवान विष्णु के लिए प्रयोग।
इज्यसे — पूजित होते हो, उपासना की जाती है; “इज्” धातु से निष्पन्न, जिसका अर्थ है पूजन करना या आराधना करना।
अचिन्त्य — चिन्तन से परे, जिसका मनन नहीं किया जा सकता; यह शब्द ईश्वर की अगोचरता को दर्शाता है।
सर्वदेवमय — सभी देवताओं में व्याप्त, संपूर्ण देवस्वरूपों का एकमात्र अधार; ईश्वर का सर्वव्यापक स्वरूप।
अच्युत — जो कभी च्युत नहीं होता, न पतन होता है न परिवर्तन; भगवान विष्णु का एक नाम।
त्वम् एव — केवल तुम ही; बल देकर कहा गया कि और कोई नहीं।
यज्ञः — यज्ञ, उपासना का स्वरूप; यहाँ यज्ञ का तात्पर्य है — ईश्वर स्वयं ही यज्ञ हैं।
यष्टा च — और यज्ञ करने वाले भी; यष्टा = जो यज्ञ करता है।
यज्वनाम् — यज्ञ करने वालों का, यजमानों का; जो यज्ञ के माध्यम से ईश्वर की आराधना करते हैं।
परमेश्वरः — परम ईश्वर, सर्वोच्च देवता; सबका नियंता और आधार।
हे अचिन्त्य, सर्वदेवमय और अच्युत प्रभो! आप ही यज्ञों के द्वारा पूजित होते हैं। आप ही स्वयं यज्ञ हैं, आप ही यज्ञ करने वाले (यष्टा) हैं, और यज्ञ करने वालों (यजमानों) के भी आप ही परमेश्वर हैं।
भगवान विष्णु समस्त यज्ञों के माध्यम से पूज्य हैं, पर वे केवल पूज्य ही नहीं, स्वयं यज्ञस्वरूप भी हैं। वे यज्ञ की अग्नि, आहुति, मंत्र और यष्टा — यज्ञकर्ता — भी हैं। इतना ही नहीं, यजमान की भी प्रेरणा और अधिष्ठान वही परमेश्वर हैं।
अचिन्त्य स्वरूप होने से वे हमारी इन्द्रियों और बुद्धि से परे हैं, फिर भी सर्वदेवमय रूप में सभी देवताओं में एकरूप होकर प्रतिष्ठित हैं।
” अच्युत ” — अर्थात जो कभी च्युत या परिवर्तित नहीं होते — वही ब्रह्मा में सृजनकर्ता, रुद्र में संहारकर्ता और समस्त देवों में शक्ति-स्वरूप में विद्यमान हैं।
इस श्लोक के माध्यम से भक्ति, ज्ञान और कर्म का त्रिवेणी-संगम भगवान विष्णु में प्रत्यक्ष होता है — वे उपास्य भी हैं, उपासना भी हैं और उपासक भी स्वयं वही हैं।
“त्वमेव यज्ञो यष्टा च यज्वनां परमेश्वरः
यज्ञ का अर्थ केवल अग्नि में आहुति देना नहीं है, बल्कि यह कर्म, त्याग और समर्पण का प्रतीक है। वेदों में यज्ञ को ” यजनं यज्ञः ” कहा गया है — अर्थात् देवताओं की पूजा, दान और ब्रह्मचिन्तन से किया गया प्रत्येक निष्काम कर्म यज्ञ कहलाता है। इसका उद्देश्य केवल सांसारिक फल प्राप्त करना नहीं, बल्कि सत्य, धर्म और संतुलन की स्थापना करना है।
बाह्य यज्ञ में जहाँ मंत्र और विधियों से देवताओं का आह्वान होता है, वहीं आंतरिक यज्ञ में इच्छाओं, अहंकार और इन्द्रियों की आहुति आत्मा की अग्नि में दी जाती है — इसे गीता में “ज्ञानयज्ञ” कहा गया है। कर्म के स्तर पर यह सेवा है, ज्ञान के स्तर पर आत्मविकास और भक्ति में पूर्ण समर्पण का भाव।
इस दृष्टि से यज्ञ वैदिक जीवन का मूल स्तंभ है, जो जीवन को दिशा, उद्देश्य और दिव्यता प्रदान करता है।
“त्वमेव यज्ञो यष्टा च”
“त्वमेव यज्ञो यष्टा च” का अर्थ है कि “तुम ही यज्ञ हो और तुम ही यज्ञ करने वाले हो।” यह वाक्य उस उच्च अवस्था का सूचक है जहाँ साधक अनुभव करता है कि कर्त्ता, कर्म और क्रिया — ये सभी भिन्न नहीं, बल्कि एक ही ब्रह्म रूप में अभिन्न हैं।
जब कोई व्यक्ति पूर्ण समर्पण से कार्य करता है, तो उसे यह अनुभूति होती है कि सब कुछ ईश्वर द्वारा, ईश्वर के लिए और ईश्वर में ही हो रहा है। उपनिषदों में कहा गया है — “सर्वं खल्विदं ब्रह्म”, अर्थात् सब कुछ ब्रह्म है। गीता में भी श्रीकृष्ण बताते हैं कि यज्ञ की प्रत्येक वस्तु — आहुति, अग्नि, दाता, क्रिया — सब ब्रह्मरूप ही हैं। यह दृष्टिकोण भेद को मिटाकर केवल एकता का अनुभव कराता है, जो अद्वैत वेदांत का मूल संदेश है।
“सर्वदेवमय”
विष्णु का ‘सर्वदेवमय’ स्वरूप दर्शाता है कि वे सभी देवताओं के गुणों और शक्तियों से युक्त परमेश्वर हैं। ‘ सर्वदेवमय ’ का अर्थ है — ऐसा रूप जिसमें ब्रह्मा, शिव, गणेश, शक्ति, सूर्य आदि सभी देवताओं का सार समाहित है।
विष्णु केवल पालनकर्ता नहीं, बल्कि सृजन में ब्रह्मा, संहार में रुद्र, शक्ति में दुर्गा, ज्ञान में सूर्य, विघ्नविनाश में गणेश के रूप में कार्य करते हैं। वे सभी देवशक्तियों के केंद्र हैं। पुराणों में कहा गया है — “विष्णुरेव जगत्सर्वं”, अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि में केवल विष्णु ही व्याप्त हैं।
यह रूपों में भिन्नता के बावजूद एक ही तत्त्व की उपासना की भारतीय भावना को प्रकट करता है।
“अचिन्त्य” और “अच्युत”
अचिन्त्य का अर्थ है कि जो विचार, वाणी और बुद्धि की पहुँच से परे हो, जिसे तर्क, प्रमाण या अनुमान से जाना नहीं जा सकता। यह ब्रह्म का अनिर्वचनीय, अप्रमेय और अनुभवगम्य स्वरूप है।
वहीं अच्युत वह है जो कभी च्युत नहीं होता, न पतित होता है, न परिवर्तित — वह सदा स्थित, नित्य और अविनाशी है। गीता (15.18) में श्रीकृष्ण कहते हैं — “यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।”
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥”
भक्तियोग की दृष्टि से यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि भक्त की श्रद्धा उसी में टिक सकती है जो अचल, अपरिवर्तनीय और अडोल हो। ईश्वर यदि परिवर्तनशील हो तो उस पर पूर्ण समर्पण असंभव हो जाता है।
इसलिए अचिन्त्य और अच्युत की संकल्पना भक्ति का आधार बनती है, जो विश्वास और आत्मिक आश्रय प्रदान करती है।
“स यज्ञः स विष्णुः”
भगवान विष्णु का यज्ञमूर्ति स्वरूप वेद, उपनिषद, गीता और पुराणों में एक समान प्रतिष्ठित है। पुरुषसूक्त में कहा गया है — “यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः” और “स यज्ञः स विष्णुः” — अर्थात् यज्ञ स्वयं विष्णु हैं।
गीता (3.15) कहती है — “यज्ञाद्भवति पर्जन्यः यज्ञः कर्मसमुद्भवः”, और (4.24) में — “ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः…” — जहाँ यज्ञ को पूर्णतः ब्रह्ममय बताया गया है।
भागवतपुराण में विष्णु को यज्ञपुरुष कहा गया है — सभी यज्ञों की अंतिम आहुति नारायण को ही समर्पित होती है। इन सभी दृष्टिकोणों से यह स्पष्ट होता है कि वास्तविक यज्ञ वैष्णव है — अर्थात् कर्म, ज्ञान और भक्ति का समर्पणमयी एकात्म रूप, जिसका अधिष्ठान स्वयं विष्णु हैं।
“जीवन यज्ञ”
जीवन यज्ञ की अवधारणा यह दर्शाती है कि मानव जीवन का प्रत्येक कर्म, यदि वह स्वार्थरहित, कर्तव्यनिष्ठ और समर्पणशील हो, तो वह यज्ञ बन जाता है।
वैदिक दृष्टि में यज्ञ केवल अग्निहोत्र नहीं, बल्कि अपने समय, श्रम, बुद्धि, अहंकार, वासना और स्वार्थ को श्रेष्ठ लक्ष्य के लिए समर्पित करना है। जब भोजन, अध्ययन, सेवा, गृहस्थ-धर्म, सामाजिक कार्य जब सभी ईश्वरार्पित भाव से किए जाते हैं, तब जीवन स्वयं यज्ञमयी साधना बन जाता है।
गीता (3.9) में कहा गया है —
“यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः” , अर्थात् यज्ञभाव से रहित कर्म बन्धन का कारण बनता है।
इस अवधारणा में आत्मार्पण ही मुख्य है — जब कर्ता फल की इच्छा त्यागकर कर्म को ब्रह्मार्पण करता है। यह कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वित मार्ग है, जो मानव को आध्यात्मिक उन्नति, धर्म और मोक्ष की दिशा में ले जाता है।
इस प्रकार, “यज्ञैस्त्वमिज्यसेऽचिन्त्य सर्वदेवमयाच्युत। त्वमेव यज्ञो यष्टा च यज्वनां परमेश्वरः॥” यह श्लोक यज्ञ, ईश्वर और ब्रह्म के एकत्व को गहराई से उद्घाटित करता है।
इस श्लोक से यह आध्यात्मिक निष्कर्ष निकलता है कि भगवान विष्णु ही सभी यज्ञों के मूल हैं— वे यज्ञ भी हैं, यज्ञ करने वाले भी और यजमान भी और अचिन्त्य (जो समझ से परे हैं), अच्युत (जो कभी च्युत नहीं होते) और सर्वदेवमय (जिनमें सभी देवताओं का वास है) हैं।
यह भाव हमें सिखाता है कि यदि जीवन का हर कर्म भक्ति, समर्पण और यज्ञभाव से किया जाए, तो वही ईश्वर की सच्ची पूजा बन जाता है।
यह श्लोक कर्तापन के अहंकार को मिटाकर, मन में यह भावना जागृत करता है कि सब कुछ ईश्वर के लिए और ईश्वर द्वारा ही हो रहा है। जब साधक यह अनुभव करता है कि भगवान ही यज्ञ हैं, वही यजमान और वही यज्यकर्ता हैं, तब उसका दृष्टिकोण बदल जाता है — अहंकार घटता है और भक्ति गहरी होती है।
यह भावना जीवन को धार्मिक, सेवामूलक और ईश्वरमय बना देती है।
तू ही है यज्ञरूप प्रभो, तू ही यजमान महान,
तेरे ही पावन रूप में, बसते देव समस्त प्राण।
अचिन्त्य स्वरूप है तेरा, च्युत न हो कभी भी तू,
अविनाशी, अचल, अनादि, व्यापक रूप है तू।
भाव सहित जो अर्पित हो, क्रिया, पूजा, ध्यान,
वह सब बनें यज्ञरूप, पाकर तेरा प्राण।
हे अच्युत! सर्वदेवमय! तुझमें सब कुछ समाए,
यज्ञमूर्ति श्रीहरि तू ही, इस जीवन को यज्ञ बनाए।
यह श्लोक साधक से कहता है कि “हे आत्मन्! अपने जीवन को यज्ञ बना, अपने कर्तव्यों को ईश्वर को समर्पित कर। जब तू कर्तापन छोड़ देता है, तभी तू सच्चे अर्थों में ईश्वर से जुड़ता है।”
यही आत्मार्पण ही यज्ञ की पूर्णता है, जो साधक को ईश्वर के साक्षात् सान्निध्य तक ले जाता है।
योगेश गहतोड़ी