
हिन्दी है भारत की भाषा,
सभी इसे अपनाते हैं।
इसमें निज वैभव दिखता है,
नहीं इसे कोई ठुकराते हैं।।
राष्ट्र-प्रेम इसमें ही बसा है,
इसमें पाते शुभ उद्गार।
बड़े-बड़े कवियों की गाथा,
रही समेट ये उर में धार।।
जीवन का सौन्दर्य-बोध ये,
हमें कराती है नित सींच।
सभी प्रान्तों का करवाती,
ये दर्शन, निज अमिय उलीच।।
हिन्दी में सब धर्म हमारे,
संस्कृत भाषा से आये हैं।
वेदों और पुराण, उपनिषद,
सब जन-जन को भाये हैं।।
इसके जैसा कोई नहीं है,
जग को यह देती सन्देश।
सभी एक हैं, धर्म एक है,
भिन्न भले हों, किन्तु स्वदेश।।
नदियाँ, पर्वत, झील, सुनहरे,
गंगा-यमुना की धारा।
सरस्वती संग मिल प्रयाग में,
हरती तन-मन अघ सारा।।
ऐसी ही विकार सब हरती,
हिन्दी में सब ज्ञान मिले।
जैसे रवि किरणों को छूकर,
नूतन, पावन फूल खिले।।
रचना-
जुगल किशोर त्रिपाठी (साहित्यकार)
बम्हौरी, मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)