
ॐ मय है ये धारा औ गगन,
जीवों का करती, सृष्टि सृजन!
राग-अनुराग से है भरा,
लय-प्रलय का है संगम गहन!!
ॐ में जो लगाए लगन,
अर्पित किया तन और मन!!
ध्रुव सरीखे अटल वो बने,
चमके वो नखत ज्योति कन!!
ढाई आखर का प्याला पिए,
हिंसक बनकर कभी ना जिए!
सेवा व्रत का समर्पण सदा,
भावना का यही हो चलन !!
दामिनी बनके चीरें घटा,
गीतमला की छाये छटा!
खिल उठे कौमुदी पूर्णिमा,
‘जिज्ञासु’ विचलित न हों व्यथा!!
कमलेश विष्णु सिंह ‘जिज्ञासु’