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जनक की जानकी

जनक की जानकी,भूमिजा प्रदान सी ,देखो कैसे जन्म वह भूमि से है पाए रही।
हुई प्रकट भूमि से,लीला करी भूमि मे ,और अंत मे देखो ,भूमि मे समाए रही।।

पड़ा था जब अकाल, जनकपुर रहा बेहाल, राजा को सलाह ऋषि ,हल चलवाए रही,
टकराया हल सीत, कलश भूमि के बीच,
निकलवाया तो ,बालिका गोद आए रही।।

जन्म की है यह कथा,मन की सीता व्यथा, इक और पूर्व के, जन्म से आए रही,
वेदवती इक नारी,तप किया जिन भारी,
चाह थी हरि को पति ,रूप मे वह पाए रही।।

इसी हेतु किया तप,लिया था कठोर व्रत ,देखा रावण मुग्ध उस ,रूप हुए जाए रही,।
पाने को उस नेेह ,करने को स्पर्श देह,
हुआ शापित ,वेदवती क्रोध आए रही।।

दिया वेदवती शाप, सुन रे रावण राज,
अपने, बल पे जो, रहा इतराय रही,
सुन ले तू अब बात, बचेगा न किसी घात,
जो देह नारी के तू,छूए कभी जाए रही।।

देती हूँ मैं और श्राप, करूंगी सर्वनाश, और बन सुता ,तेरे घर रहूं आए वही,
हुआ फिर तभी ऐसे, सुता बन आई जैसे,
रावण के डर से ,मंदोदरी छिपाए रही।।

इसकी भी विचित्र व्यथा,कहती है आगे की कथा,रावण अभिमानी आश्रम, गृत्समद जाए रही,
जो थे ऋषि वेद पाठी,और हरि के अभिलाषी,
चाहते हरि प्रिया ,पुत्री रूप पाए वही।।

नही थे आश्रम रात,किया जब रावण घात ,मौत के घाट ऋषि ,शिष्य सब ढाए वही,
और खेला खेल घोर, रक्त घट भर चोर,
जाए लंका मे,जाके वह छिपाए रही।।

दिन बीते पीछे गाज,मंदोदरी न जाने राज, देखा घट जब,चख पता वह लगाए रही,
क्या ही इत रहा भेद, गर्भ चढ़ आया तेज और बालिका को वह ,सुता रूप पाए रही।।

छिपा रावण से बात,छिपा आई मिथिला रात,जहा जनक हल थे ,चलवाए आप रही ,
बाकी रही वही कथा,बाल्मिकी रची जो सदा,हर कोई जाने कैसे सीता लोक आए रही।।

काल के ग्रास से ,बचा न कोई शाप से,
कथा सीता माता त्रेता ,आप समझाए रही।
विधि का विधान रहा, मानस अनजान रहा,
होता है वही जो ,विधि आप चाहें रही।।

सीख दी माता कई ,जीवन जब जीव भई,,
कसी कसौटी आप, माया रची जाय रही,,
माया का रहा प्रभाव, वन जब राम साथ,
आई तृष्णा स्वर्ण मृग, चाहे थी पाए वही।।

न था वैसे कोई लोभ,था तो बस विधि कोप,
जिद्द कीन्ही राम से कि,पाए वह मृग वही,,
राम चले जब छोड़, सीता लखन योग,
आया रावण भिक्षु बन, कहे था भिक्षां देहि।।

यही था माया जाल, विधि बुना जंजाल,
होना था नाश रावण ,समझ जिसे आया नही।।
आगे की कथा का छोर, जाने सब जन ठौर, सोने की लंका को सिय थी ठुकराए रही।।

यही तो है वासना ,मन की निज कामना,
चाही लोभ सुवर्ण थी ,जागी तो ठुकराए रही।।

कामना थी सुवर्ण मृग, मिली लंका सुवर्ण निज ,समझ आया,खेल जब, विधि जौन रचाए रही,।।

आई तब समझ बात, माया नही जाती साथ, जानी है तो साधना, साध्य जो राम वही,,
इसी को किया था खेल, सफल हुए सब मेल,सुख दुख विधान है,समझ सब आए रही।।

कथा कही सरल ऐसी,रामायण मे रही जैसी,
नाम है साधना , राम नाम गाए जासी।।

संदीप शर्मा सरल
देहरादून उत्तराखंड

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