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विरह


(शिकायत राधा की)
मैं साथ खड़ी थी तुम्हारे
पर तुमने देखा ही नहीं
अपने भक्तों की भीड़ में
मेरे पवित्र स्नेह को
तुमने पहचाना ही नहीं।।
चल दिए छोड़कर अचानक
वे गोकुल की गलियां
वो मिट्टी के बर्तन
ए रास रचिया मनमोहन
मेरी विरह अग्नि को
तुमने देखा ही नहीं।।
जिस मुरली की मधुर तान पे
मैं दौड़ी चली आती थी मिलने
शुद्ध बुद्ध अपनी
सारी खोकर भी
समा जाती थी तुम में ही
मेरी इस दीवानगी को
तुमने समझा ही नहीं।।

नीरज कुमार “नीर” इटारसी

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