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ईशावास्योपनिषद्


।। श्लोक ३ ।।
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृता: ।
तान्’स्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जना: ।।
व्याख्या— मानव शरीर अन्य सभी शरीरों से श्रेष्ठ और परम् दुर्लभ है एवं वह जीव को भगवान की विशेष कृपा से जन्म मृत्यु रूप संसार समुद्र से तरने के लिए ही मिलता है ।
ऐसे शरीर को पाकर भी जो मनुष्य अपने, कर्म समूह को ईश्वर पूजा के लिए समर्पण नहीं करते और कामोंपभोग को ही जीवन का परमधाम मानकर विषयों की आसक्ति और कामना बस जिस किसी प्रकार से भी केवल विषयों की प्राप्ति और उनके यथेच्छ अर्थात् {जो भी इच्छा में हो के} उपभोग में ही लगे रहते हैं; वे वस्तुतः आत्मा की हत्या करने वाले ही हैं;
क्योंकि इस प्रकार अपना पतन करने वाले वे लोग अपने जीवन को केवल व्यर्थ ही नहीं, खो रहे हैं वरन् अपने को और भी अधिक कर्म बंधन में जकड़ रहे हैं । इन काम-भोग पारायण लोगों को, चाहे वह कोई भी क्यों ना हों, उन्हें चाहे संसार में कितने ही विशाल नाम, यश, वैभव या अधिकार प्राप्त हों, मरने के बाद कर्मों के फल स्वरूप बार-बार, उन कूकर, सूकर, कीट, पतंग आदि विभिन्न शोक संतापपूर्ण आसुरी योनियों में, और भयानक नरकों में भटकना पड़ता है ।
‘ {गीता १६। १६। १९। २०}
जो कि ऐसे आसुरी स्वभाव वाले दुष्टों के लिए निश्चित किए हुए हैं । और महान अज्ञानरूप अंधकार से आच्छादित हैं । इसलिए श्री भगवान ने गीता में कहा है कि, मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिए । अपना पतन नहीं करना चाहिए ।।
ईशावास्योपनिषद् ६। ५। ॥३॥
साभार– गीता प्रेस

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