
सम्बन्ध— अब उपर्युक्त प्रकार से ज्ञान और कर्म– दोनों के तत्व को एक साथ भली भांति समझने का फल स्पष्ट शब्दों में बतलाते हैं —
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयन्’सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतम’श्नुते ।।११।।
व्याख्या— कर्म और अकरम का वास्तविक रहस्य समझने में बड़े-बड़े बुद्धिमान पुरुष भी भूल कर बैठते हैं । {गीता ४।१६}
इसी कारण कर्म रहस्य से अनभिज्ञ ज्ञानाभिमानी मनुष्य कर्म को ब्रह्म ज्ञान में बाधक समझ लेते हैं और अपने वर्णाश्रमोचित अवश्य कर्तव्य कर्मों का त्याग कर देते हैं;
परंतु इस प्रकार के त्याग से उन्हें त्याग का यथार्थ फल कर्म बंधन से छुटकारा नहीं मिलता ।
{गीता १८।८}
इसी प्रकार ज्ञान {अकर्मावस्था-नैष्यकर्म} का तत्व ना समझने के कारण मनुष्य अपने को ज्ञानी तथा संसार से ऊपर उठे हुए मान लेते हैं ।
अतः वे या तो अपने को पुण्य पाप से अलिप्त मानकर मनमाने कर्माचरण में प्रवृत्त हो जाते हैं या कर्मों को भाररूप समझकर उन्हें छोड़ देते हैं
और आलस्य निद्रा तथा प्रमाद में अपने दुर्लभ मानव जीवन के अमूल्य समय को नष्ट कर देते हैं ।।
इस प्रकार इस दोनों प्रकार के अनार्थों से बचने का एकमात्र उपाय कम और ज्ञान के रहस्य को साथ-साथ समझकर उनका यथा योग्य अनुष्ठान करना ही है ।
इस कर्म साधन के साथ – ही साथ – विवेक बैराग्य संपन्न होकर निरंतर ब्रह्म विचार रूप ज्ञान अभ्यास करते रहने से श्री परमेश्वर के यथार्थ ज्ञान का उदय होने पर वह शीघ्र ही, पर ब्रह्म परमेश्वर को साक्षात प्राप्त कर लेता है ।।
साभार— गीता प्रेस
साधक बलराम शुक्ल
नवोदय नगर हरिद्वार