
“साहित्य सरल हो सकता है,परंतु सस्ता या ओछा नहीं हो सकता।”- पी.यादव ‘ओज’
अनुभव की कूची से कल्पना के इंद्रधनुषी रंगों को समेट कर, जब मन की परत से बाहर जीवन के सत्यम-शिवम-सुंदरम भाव को शब्दमय रूप में उकेर दिया जाता है,तब वह ही साहित्य सदृश्य शोभायमान हो जाता है।
साहित्य’ शब्द की कल्पना मात्र से ही मन आनंदित हो उठता है।मन के गगनमंडल में शब्द रूपी तारागणों,ग्रहों-नक्षत्रों एवं दैदीप्तमान आकाशगंगा स्वत! ही उभर आते हैं।
साहित्य अर्थात जिसमें सब का हित समाया हो,जो स्वांता सुखाय की भावनाओं से परे हो,जिसमें विश्वकल्याण की भावना सन्निहित हो।
‘साहित्य’ उस वटवृक्ष की तरह है,जिसके सानिध्य में प्रत्येक प्राणी का कायाकल्प संभव है।जहां साहित्य में सबका हित निहित होता है,वहीं वह व्यक्ति,समाज एवं राष्ट्र के विकास का परिचायक भी है।इस कारण से ही साहित्य को समाज का दर्पण की संज्ञा दी गई है।अर्थात जिस देश का साहित्य जितना उत्कृष्ट कोटि का होगा,उस देश का समाज भी उतना ही ज्यादा विकसित और सुदृढ़ होगा।
एक सच्चे साहित्यकार का दायित्व एवं कर्तव्य होता है कि वह अपनी लेखनी की जादूगरी से भूत,वर्तमान और भविष्य में जीवन का संचार करें तथा समाज,राष्ट्र और विश्व को एक नई दिशा-गति,प्रगति प्रदान करें।
जहां साहित्य समाज का दर्पण है,वहीं कविता काव्य की आत्मा।साहित्य और समाज एक-दूसरे के परिपूरक हैं।
यदि साहित्य को समाज का एक चिरस्थायी पथप्रदर्शक कहा जाए तो,इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।आदिकाल से लेकर आज तक भाषा एवं साहित्य के पुरोधाओं ने समय-समय पर साहित्य के माध्यमों से समाज को सुदृढ़ता एवं नवीनता प्रदान कर,चेतना और जागृति का प्राण फूंका है।
बिना सदसाहित्य के मानव-समाज अधूरा ही नहीं,वरन् दिशाहीन भी है।
जैसे अमावस की घोर अर्धरात्रि में पीत आभा बिखरते जुगनूओं की रश्मियां पथच्युत राही को पथगमन की पूर्णता प्रदान करती है,ठीक उस प्रकार ही सदसाहित्य विश्व-कल्याण की पावन भावना के साथ समाज तथा संसार का उद्धार करता है।
साहित्य की बात हो,और काव्यात्मक रसों से पूर्ण कविता की बात ना हो तो,यह संभव ही नहीं।साहित्य में यदि कोई भिन्न-भिन्न रसों का संचार करती है,तो वह कविता ही है।कविता जीवन के हर रसों का रसानंद करा कर अंतस को तृप्त कर देती है।
“साहित्य नवजीवन,नवसृजन एवं प्रेरणा की वो अमृतमय धारा है,जिसके बूंद-बूंद से समाज,राष्ट्र और विश्व को एक नई चेतना मिलती है।”
“साहित्य केवल मनोरंजन की वस्तु नहीं,अपितु युग-क्रांति का प्रज्वलित मशाल है।”
साहित्यकार-
पी.यादव ‘ओज’
झारसुगुड़ा,ओडिशा।