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नवद्वारपुरम् की साहित्यिक साधना

हम ही हैं साधन पावन, जिससे जागे सत्य विचार,
नवद्वार जब हों जाग्रत, गूँजे चेतना का सार।
जहाँ बहे पावन प्रवाह, मिले आत्मा को ज्ञान,
ज्योतिर्मय हो तब मानव, मिटे सभी अज्ञान।

हमारी दृष्टि हो विवेकमयी, दूर रहे छल की छाया,
मन की सृष्टि न बहे कभी, थामे सत्य सुधा माया।
जो दर्शन दे कल्याणमयी, भावों में मधुर विचार,
वहीं बने कविता की ज्योति,चित्त करे विस्तार अपार।

श्रवण बने जब मंत्रमय, वाणी में हो भाव प्रणाम,
गूंजे गुरु-वचन निर्मल से, जैसे श्रुति का अविराम।
मौन जहाँ हो स्वर-संचित, श्रद्धा कहे मधुर पुकार,
वहीं सजग हो आत्म-रूप, साहित्य बने अमूल्य उपहार।

जब श्वास चले समभाव से, हो अग्नि-चंद्र का संगम,
प्राण जगे जब ज्ञान हेतु, मिटे भ्रमों का संग्राम।
जहाँ बहे जीवनधारा-सी, हो भीतर से सच्चा बंध,
वहीं अमर हो साहित्य तब, आत्मा रचे उसका छंद।

शब्द वही जो मौन से जागे, न हो केवल राग का शोर,
जहाँ सत्य रस में डूबे मन, संवाद करे सहज ठौर।
वाणी वही तप की धार हो, रचे विचारों की पहचान,
बने वही ब्रह्मनाद सम, लेखन का हो मूल निदान।

इंद्रिय हों जब संयमित, चित्त में शांति समावेश,
मन रहे वासना रहित, आत्मा पावे निर्व्यपेश।
विचार हों निष्ठावान, दीप जले संकल्प उजियारे,
लेखनी कहे सत्य सूत्र, आत्मा तक पहुंचे सधारे।

जहाँ त्याग हो अज्ञान का, हो भीतर शुद्ध प्रकाश,
मोह-तिमिर से मुक्त जब, फैले जग में विश्वास।
जहाँ मलिनता समाप्त हो, सत्य स्वरूप प्रबल,
वहीं लेखनी रचे नई, जागृति की रहे दल।

हे नवद्वार! अब जाना मैंने, तुमसे जीवन का सार,
तुमसे बहता ज्ञान सागर, मिटे मोह का अंधकार।
अब न रहा मैं तन मात्र, मैं आत्मदीप समर्पित,
इन द्वारों से बहे रस अमृत, मैं ब्रह्मानंद रूपित।

जब इंद्रियाँ बनें साधना, हो मन में सत्य विचार,
नवद्वार साध्य मानव करे, साहित्य का प्रचार।
साहित्यिक सचेतना का हो, गाँव-गाँव अभियान,
जहाँ शब्द बनें आत्मा-वाणी, मिले तब ब्रह्मज्ञान।

योगेश गहतोड़ी (ज्योतिषाचार्य)
नई दिल्ली

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