
खिलौनें खोजते है,
वो नन्हे नन्हें हाथ,
मासूमियत भरे जज़्बात,
जो तोड़ते थे उनको ,
इक टकराहट के बाद।।
विरह मे सब अब वे है,
बुलाए जाते न अब ये है,
बुलाते थे जो दोस्त,
वो दोस्त न रहे है ।।
कोई बुलाए उन्हे अब जब तो,
वो बहलाए भी, मन फिर तब तो,
पैदाइश के बाद जवानी
बचपन तो खो रहे है।।
उन्हे चिंता हो रही है ,
इक पीढ़ी जो रही,
जीवन के मंझधार मे,
बचपन को खो रही है।।
जब होते थे खिलौनें, नन्हे, सोहने,और सलौनें
बुलाते थे क्या हक से,खिलाते थे मनमोहने।।
अब बुलाता उन्हे (कोई) नही है,
नीरसता होय रही है,
सुना है उन्होंने कि,
चिंता बच्चो को हो रही है।।
यह हुआ क्या बाद,फिर उनके,
वे करते याद, है मन से,
इक यंत्र तो कोई आया था ,
उन्हे भुलाए जाने की धुन से।।
क्या संभाल न वह बचपन पाया,
जो बच्चो का था सरमाया,
जिस पर टिकनी थी जवानी,
और बुढापें की काया।।
वह तो बुढ़ा गया है,अब से ,
बचपन न रिहा है,जब से
कैद मे मासूमियत,
यह कैसा नियम है,अब से।।
डिब्बो मे बंद पड़े है,
शब्द मुसाफ़िर से रहे है,
ठहर गए वो है सफ़र मे,
अब सफ़र ही न रहे है।।
वैसे वो सोचते है,
मुट्ठी को भींचते है,
दे तोड़ उन्हे फिर कोई,
हाथ नन्हे खोजते है।।
तलाश उन्हे नन्हे हाथो की,
मासूमियत भरी बातों की,
जो तुतलाते से वे हो,
तोड़े जाते भले ही वे हो।।
संदीप शर्मा सरल
देहरादून उत्तराखंड