
(वर्तमान परिपेक्ष्य में)
मैं एक इंसान हूं, मगर पहचान धुंधली है,
चेहरा दिखता है मास्क में, पर मुस्कान गुम सी है।
हर ओर अफवाहों की गर्द जमी है,
सच की आवाज़ अब भीड़ में कहीं छुपी है।
मैं एक इंसान हूं, पर खबरों में टुकड़ों में बंटा हूं,
कभी किसी पंथ, कभी किसी पाले में लिपटा हूं।
मेरी सोच मेरी नहीं रही,
जो बताया गया, वही अब मैं मानता हूं।
मैं एक इंसान हूं, और इस दौर में डरा हूं,
भीड़ में खड़ा हूं, पर भीतर से अकेला हूं।
टेक्नोलॉजी की उँगली पकड़ कर चल रहा हूं,
पर रिश्तों की नब्ज़ अब पकड़ से छूटी जा रही है।
मैं एक इंसान हूं, जिसने धरती को ज़ख्म दिए,
अब जलवायु का रोष हर ऋतु में दिखने लगे।
बारिशें समय से नहीं आतीं, गर्मी कहर बन जाती,
मैंने जो बोया, अब वही मेरे जीवन को खा रही।
मैं एक इंसान हूं, अब और नहीं सो पाऊंगा,
सिर्फ सुविधा में ही मानवता को नहीं खो पाऊंगा।
मुझे आवाज़ बननी होगी, बदलाव का बीज बोना होगा,
नफ़रतों के व्यापार में इंसानियत फिर से खोना नहीं होगा।
मैं एक इंसान हूं — यही अब पुकार बननी चाहिए,
हर दिल की आवाज़ में यह झंकार बननी चाहिए।
जाति, धर्म, सीमाओं के पार,
मनुष्यत्व ही मेरा सबसे बड़ा आधार।
मैं एक इंसान हूं — यही सबसे बड़ा सच है,
अब इसे सिर्फ कहने नहीं, जीने का वक़्त है।
डॉ बीएल सैनी
श्रीमाधोपुर सीकर राजस्थान