
सनातन के दृष्टांत कामना चतुष्टय में चतुर्थ विषयों में सुरक्षा पहले है। किसी भी जीव को यह शशक्त, उत्साही, निडर और कर्तव्य-परायण बनाती है, उसे नैतिक मूल्यों और सामाजिकता की ओर उन्मुख करती है। इसी सम्बन्ध में महाभारत से द्रौपदी चीर-हरण की एक मार्मिक और बीभत्स घटना याद आती है। दरअसल महाभारत में दो दृश्य या घटनायें बहुत ही मार्मिक और डरावने तथा मन के झकझोरने वाले और हृदय में उथल-पुथल मचाने वाले हैं, फिर भी आज का इन्सान महाभारत के परिणाम से अनभिज्ञ रहकर अपने कर्मों पर ध्यान नहीं देता है, जिसके कारण उनका नैतिक, चारित्रिक और सामाजिक पतन होता जा रहा है। ऐसी प्रतिष्ठा और सम्मान किस काम के, जिनके नीच किसी की सिसकी या आहत भरी आहट सुनायी देती हो। प्रस्तुत कहानी ऐसी ही एक सिसकी और आहत भरी आहट की ओर संकेत करती है- कहानी- सुरक्षा में, यथा-
सभा में निश्तब्धता छायी हुई थी। सभी उपस्थित महानुभाव किसी भयानक अनहोनी से शंकित और भयभीत थे। राजा धृतराष्ट्र सिर झुकाये मौन थे। शकुनी दुर्योधन तथा कर्ण की पीठ ठोंककर हँस रहा था। दुर्योधन और कर्ण भी एक-दूसरे को मानो बधाई दे रहे हों। वे दोनों अट्टहास कर रहे थे। पाँचों पाण्डव अपने-अपने मुँह को दोनों हाथों से छिपाये मानो सब-कुछ छिन जाने और सम्मान खोने का संकेत दे रहे थे। तभी सबको मौन देखकर विदुर ने कहा कि, “पितामह! आज रोक लीजिए इस अनर्थ को। अगर आज कोई अनहोनी हो गयी तो आगे आने वाला युग और समय आपको और राजा धृतराष्ट्र को कभी माफ नहीं करेगा।” विदुर की बातें सुनकर शकुनी, कर्ण और दुर्योधन और जोर से हँसने लगे। विदुर ने कहना जारी रखा, “महाराज! आज आपका पुत्र अधर्म कर रहा है। यहाँ बैठे जैसे सभी को जैसे बरसात में गिरे पानी से लोहे की तरह जंग लग गया है।”
“विदुर!” तभी भीष्म की गर्जना से सभी के चेहरे ऊपर उठे और भीष्म की ओर मुढ़ गये। ” विदुर! मुझ पर तुम भी व्यर्थ आरोप लगा रहे हो.. मुझ पर? मैं चाहूँ तो इस समूची धरती को जनकपुर की स्वयंवर सभा में लक्ष्मण के रोषपूर्वक कहे सत्य वचनों की तरह पलटकर अस्त-व्यस्त कर सकता था, अगर श्रीकृष्ण और बलराम इस धरती पर नहीं होते तो..। मेरे सम्मुख व्यर्थ वकवास कर मुझे क्रोध मत दिलाओ विदुर! जो हो रहा है, उसे देखते रहो..देखते रहो..।” तभी बाहर किसी स्त्री के चीखने-चिल्लाने और बचाओ..बचाओ की दर्द और आहतभरी करुण आवाज सुनायी दी। “वही हुआ, जिसका डर था पितामह! अगर आप इन्हें नहीं रोक सकते तो भाग जाइये, फिर कहीं द्रौपदी ने कुछ कह दिया या कुछ प्रश्न कर दिया तो आपकी सम्पूर्ण साख मिट्टी में मिल जायेगी। आप इन आतताइयों को रोक नहीं सकते..महाराज अन्धे हैं, कह देंगे कि मैंने कुछ नहीं देखा..कुछ नहीं देखा। सुना जरूर..किन्तु उससे स्पष्ट अनुमान नहीं लग सका।…हे पाण्डव वीरो! तुमने जो किया, उसका जिक्र इतिहास और पुराणों तथा रामायणों में सदा होता रहेगा। आज तुम अपनी आँखों से अपने सामने देखोगे कि संकोचपूर्वक विवेकहीनता में लिया गया निर्णय कितना घातक और कष्टदायक होता है। आज तुम्हें अपने सम्पूर्ण अंग छिदते हुए महसूस होंगे और उनकी पीड़ा भी अच्छी तरह समझ में आ जायेगी। मैं इस भरी सभी में गरजकर कहता हूँ कि यदि यहाँ वह कुछ हुआ जो नहीं होना चाहिए तो धरती यहीं फट जायेगी और उसे फलता हुआ सब देखेंगे, ये विदुर का वचन है।…कोई अगर कुछ नहीं बोलता है तो समय बोलता है और उस बोलते समय में अस्तित्व की गूँज की तड़क होती है, जो बिजली की भाँति भयंकर और स्तब्ध, भयभीत तथा आशंकित करने वाली होती है। उसका कोई निवारण नहीं है।” तभी वह चीख-पुकार की ध्वनि और नजदीक आती हुई सुनाई देती है। सभी धम्म की आवाज सुनकर डरकर खड़े हो गये। ऐसा लगा, जैसे कोई चीज बाहर से तेजी के साथ आकर गिरी हो। बिखराए हुए वालों साड़ी में छिपी हुई कुरुवंश की इज्जत सबके समक्ष खड़ी नहीं हो पा रही थी। वह मन ही मन आत्मा से धरती से पुकार करती कि उसे अपने में समेट ले ताकि इस अवस्था में मुझे किसी को मुँह दिखाने के पाप और कलंक से बचना हो जायेगा। सभी जैसे खड़े हुए वैसे ही बैठ गये मानो अपने-अपने आसनों पर गिरा दिये गये हों। उस सभी में शकुनि, कर्ण, दुर्योधन और दुश्शासन के अलावा कोई प्रसन्न और सुखी नहीं था। सभी धरती में लाज और शर्म के मारे कुरुवंश की पौत्रवधू की तरह गढ़े जा रहे थे। मानो होने ने सबको दबोच लिया था। सभी किंकर्तव्यविमूढ़ से होकर निराशा की गहरी अन्धेरी खाई में धकेलने जा चुके थे।
तभी दुश्शासन की गर्जना सुनाई पड़ी, “भाई! ये रही पाँचों पाण्डवों की दुष्चरिता पत्नी, जो एक को सहन न कर सकी।” कहकर उसने धरती पर पड़ी हुई निश्चेत द्रौपदी की ओर इशारा किया। दुर्योधन बोला, देर किस बात की, इस मेरी जंघा पर बैठने का आदेश दो और यहाँ पर लाओ..” इससे पहले दुश्शासन कुछ करता, द्रौपदी महाराज के समक्ष विनीत भाव से आशावान होकर खड़ी हो गई और महाराज! कहकर चुप हो गई। महाराज ने मुँह फिर लिया और फिर वह क्रम से पितामह, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और विदुर के पास गई। विदुर ने कहा, आज मैं देखता हूँ कि कृष्ण के रहते तेरा अपमान कैसे होता है? पुकार उसे, जिसका तुझसे छाया-सम्बन्ध है। तेरी एक पुकार और उसके आने में देर नहीं…वह यहीं है। मुझे दिखाई देता है। तुझे भी वनवास काल में दुर्वासा के आगमन पर पुन: दिखाई देगा, जब विकट संकटमयी घड़ी आयेगी। मैं तेरा साथ दूँगा..पुकार पुत्री पुकार…अभी न पुकार पायी तो फिर कभी पुकारने योग्य नहीं रहेगी तू….नहीं रहेगी तू।”
तभी धृतराष्ट्र का पुत्र और दुर्योधन का छोटा भाई विकर्ण उठा और मामा तथा अपने भाईयों को ‘ऐसा अधर्म मत करो!’ कहकर रोकने लगा, किन्तु वे न माने और उस पर ही क्रोध करने लगे। विकर्ण द्रोपदी से क्षमा माँग सभा से चला गया और उसने माता गान्धारी को सारी घटना से अवगत कराया और कहा, कि माँ! आप जाकर इस समय होने वाली बुरी घटना को रोक सकती हैं और कोई नहीं।” विकर्ण की बात सुनकर गान्धारी तत्काल वैसे ही उठ खड़ी हुई और दासियों को लिवाकर शिविका में सवार हो तुरन्त सभा की ओर चल पड़ी। इधर दुर्योधन का अट्टहास और शब्द पुन: सुनायी देने लगा, “चल, पुकारले…पुकारले..हम भी देखें कि यहाँ कौन आता है? आज तो यहाँ हम ही हम हैं और कोई नहीं.. इसलिए हम जैसा चाहेंगे, वैसे ही होगा। क्यों व्यर्थ में समय नष्ट कर रहाहै, मेरी जाँघ पर बैठ जा। तुझे गोदी में लेकर लाड़ तो कर लूँ…”
“दुर्योधन! मैं प्रतिज्ञा करके माता कुन्ती और श्रीकृष्ण की शपथ-पत्र खाकर कहता हूँ कि जिस जंघा पर बैठने के लिए तूने द्रोपदी को इशारा किया है, उस जंघा को तोड़ डालूँगा और दुश्शासन सुन! द्रोपदी के जिन वालों को तूने अपने हाथों से घसीटा है, उन्हीं वालों को एक दिन तेरे खून से स्नान कराऊँगा।”
“वाह आर्य..वाह! हमें तुम पर गर्व है। आज से मैं अपने वालों को खुला छोड़ती हूँ।” यह कहकर उसने अपने बालों में लगी गाँठ खोल दी और दुर्योधन के पुन: कहने पर दुश्शासन को अपनी ओर आता देखकर वह आँखें मूँदकर श्रीकृष्ण को पुकारने लगी, तब-तक दुश्शासन द्रोपदी की साड़ी छूने लगा था। जैसे ही उसने साड़ी खींची, तो वह खींचता ही रह गया। सभी के सिर एकाएक उठ गये। सभी चमत्कार और भक्ति-भाव देख रहे थे। यह श्रद्धा और भक्ति तथा विशुद्ध प्रेम का ही परिणाम था, जो सभी सजल नयनों से सुखद एहसास कर देख रहे थे।
दुर्योधन, शकुनी तथा कर्ण एक-दुसरे का मुँह ताक रहे थे। कोई कुछ नहीं कर पा रहा था। सभा में नीरवता छायी हुई थी। तभी सभा में गान्धारी ने पुत्रवधु द्रोपदी कहते हुए प्रवेश किया। द्रोपदी के मुँख से केवल श्रीकृष्ण…श्रीकृष्ण की ध्वनि ध्वनित होकर पूरी सभी को आवेशित कर रही थी। उस ध्वनि में कोई समाहित होकर साड़ी के रुप में बह रहा था। गान्धारी दुश्शासन के पास आयी और सब-कुछ जानने पर उसने दुश्शासन के गाल पर जोरदार तमाचा जड़ दिया। दुश्शासन के हाथ से साड़ी छूट गयी और वह नीचे गिर पड़ा। दौपदी को गान्धारी ने जगाया, वह अपनी सुध-बुध भूल गयी थी। जैसे सी उसके हृदय से कृष्ण छबि हटी, उसकी आँखें खुल गयी और सामने गान्धारी को देखकर उनसे लिपटकर रोने लगी। गान्धारी ने उससे अपने बच्चों के कुकर्म की माॅफी माँगी और अपने पुत्रों, शकुनी और महाराज को डाॅट लगायी, आपके रहते भरी सभा में एक पीड़िता कराहती रही और आप सुनते रहे..कुछ नहीं कर सके। आपको महाराज कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। अब ये राज्य आपका अधिक दिन नहीं रहेगा।” कहकर वह ‘आ बेटी’ कहकर द्रोपदी को अपने साथ ले गयी। महाराज द्वारा पाण्डवों को जुए में हारी हुई सभी चीजें लौटा दी गई, किन्तु पाण्डवों की की हुई प्रतिज्ञा वह वापस न करा सके।
कहानीकार-
जुगल किशोर त्रिपाठी (साहित्यकार)
बम्हौरी, मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)