
“कुलरक्षण” का अर्थ सिर्फ अपने वंश या परिवार की रक्षा करना नहीं है, बल्कि उन अच्छे विचारों, संस्कारों और सिद्धांतों को बचाकर आगे बढ़ाना है, जो हमारे पूर्वजों ने अपनाए थे। जब एक परिवार आपस में प्रेम, सम्मान, सत्य और धर्म के साथ जुड़ा रहता है, तो वही एक सशक्त कुल बनता है और जब ऐसे कई कुल अपने-अपने मूल्यों को निभाते हैं, तो उससे हमारी समृद्ध संस्कृति बनती है। इसलिए कुलरक्षण का असली अर्थ — तलवार या शक्ति से नहीं, बल्कि अच्छे कर्म, संस्कार और सत्य के रास्ते पर चलकर अपने कुल की परंपराओं और मूल्यों की रक्षा करना है।
बहुत समय पहले की बात है, प्राचीन भारत के “विष्णुपुर” नामक एक पवित्र गांव में महादेव शर्मा नामक एक विद्वान और तपस्वी ब्राह्मण रहते थे। उनका जीवन वेद, यज्ञ और धर्मकार्य में ही बीतता था। उनका वंश कई पीढ़ियों से कुलरक्षण के पथ पर चला आ रहा था — जहाँ धन नहीं, धर्म ही सबसे बड़ा उत्तराधिकार था।
महादेव जी का इकलौता पुत्र समर्थ था, जो समय के साथ आधुनिक शिक्षा से प्रभावित हो चला था। एक दिन उसने अपने पिता से कहा —
“पिताश्री, यज्ञ, पूजा, वेदपाठ — यह सब अब कौन करता है? आजकल तो विज्ञान, तकनीक और पैसा ही असली ताकत हैं। कुलरक्षण जैसे शब्द अब केवल किताबों में अच्छे लगते हैं।”
महादेव जी मुस्करा दिए। शांत स्वर में बोले —
“बेटा, जब कोई वृक्ष अपनी जड़ों को छोड़ देता है, तो उसकी शाखाएँ बहुत देर तक हरी नहीं रहतीं।
कुलरक्षण केवल कर्मकांड नहीं, आत्मिक शक्ति का आधार है। जब यह समाप्त होता है, तो वंश केवल नाम का रह जाता है।”
समर्थ चुप हो गया, लेकिन उसे यह बात अधूरी-सी लगी। कुछ ही समय बाद विष्णुपुर गांव पर दूसरे गाँव के लोगों ने आक्रमण कर दिया। उन्होंने यह आदेश दिया कि “जो अपने धर्म, पूजा और कुल परंपरा को त्याग देगा, उसे जीवन मिलेगा। बाकी सभी मार दिए जाएँगे।”
विष्णुपुर गांव में भय फैल गया। कई लोग धर्म छोड़ने को तैयार हो गए। कुलरक्षण की भावना पर जैसे कोई परदा पड़ गया हो।
समर्थ ने पिता से कहा —
“पिताश्री, अब यहाँ रुकना ठीक नहीं। चलिए, किसी सुरक्षित जगह में चलें। अब यहाँ कुलरक्षण संभव नहीं रहा।”
महादेव जी गंभीर हो गए। बोले —
“बेटा, जब अंधकार गहराता है, तब दीपक की आवश्यकता सबसे अधिक होती है। संकट के समय कुलरक्षण से पीछे हटना पाप है। भागो मत, डटकर खड़े हो जाओ।”
अगले दिन महादेव जी ने अपने आश्रम में एक यज्ञ आरंभ किया। उन्होंने गाँववालों को बुलाकर कहा —
“यह यज्ञ कुलरक्षण यज्ञ है। इसमें वही आहुति दे सकता है, जो धर्म के लिए निस्वार्थ भाव से जीवन अर्पण करने को तैयार है।”
यज्ञ की अग्नि धधकने लगी, जैसे किसी पुरातन आत्मबल की ज्वाला हो। तभी दूसरे गांव के लोग आश्रम की ओर बढ़ने लगे, लेकिन इस बार महादेव जी अकेले नहीं थे, उनका बेटा समर्थ उनके आगे खड़ा हो गया और उसने गर्जना की —
“यह केवल अग्नि नहीं है, यह मेरे कुल की आत्मा है। यह कुलरक्षण की अग्नि है। यदि इसे बुझाना चाहते हो, तो पहले मुझे बुझाना होगा।”
उसके स्वर में ऐसी दृढ़ता थी कि आश्रम के अन्य ब्राह्मण, स्त्रियाँ, युवक और बच्चे भी खड़े हो गए। पूरा गाँव एकजुट होकर कुलरक्षण की रक्षा हेतु सामने आ गया।
यह देखकर दूसरे गांव के लोग पीछे हट गए। उस दिन समर्थ ने पहली बार अपने पिता की बात को अनुभव किया और बोला पिताजी, कुलरक्षण न वाणी से होता है, न शस्त्र से असली में कुलरक्षण यानि कुल की रक्षा तो त्याग, निष्ठा और एकता से ही संभव है।
समर्थ कुछ देर शांत रहा फिर उसने अपने पिता से कहा —
“पिताश्री, आपने सही कहा था। कुलरक्षण कोई पुरानी परंपरा नहीं, यह तो जीवंत चेतना है, जो हर युग में ज़रूरी है।”
इसके बाद समर्थ ने पूरे नगर में कुलरक्षण अभियान आरंभ किया। उसने वेदपाठशालाएं, संस्कार केंद्र, गौशालाएं और धर्मशालाएं बनवाई और गाँव-गाँव जाकर वह एक ही संदेश देता था कि:
“कुलरक्षण केवल परंपरा निभाना नहीं है, परंपरा के साथ जीना है और आगे बढ़ाना है।”
“जहाँ धर्म है, वहीं कुल है; जहाँ कुल है, वहीं संस्कृति है और जहाँ संस्कृति है, वहीं भारत है। यही है — कुलरक्षण।”
योगेश गहतोड़ी
नई दिल्ली – 110059