
संस्मरण: पावस ऋतु में प्रकृति और त्योहार
मेरे गाँव की यादें
पावस ऋतु जब मेरे गांव जैंती की धरती पर अपनी पहली बारिश की बूँदें टपकाती थी, तो ऐसा लगता मानो प्रकृति ने स्वयं को नए रंगों में रंग लिया हो। चारों ओर हरियाली की चादर सी बिछ जाती थी। पहाड़ों की ढलानों पर बिछी दूब को देखकर मन पुलकित हो उठता। पुराने बुरांश के पेड़ों से लेकर, नए उगे काफल के पौधों तक, हर पत्ता जैसे बारिश में भीगकर मुस्कुरा रहा होता। हवा में घुली गीली मिट्टी की सोंधी गंध, हमारे गांव की पहचान थी। वही गंध जो आज भी किसी बरसात में बहकर स्मृति में लौट आती है।
हमारे घर के पास एक छोटी सी गधेरा बहती थी, जिसे हम “दूधिया गधेरा” कहते थे — क्योंकि उसका पानी पावस ऋतु में दूधिया होकर बहता और उसकी कलकल आवाज़ पूरे गांव में गूंजती। हम सभी बच्चे नंगे पाँव दौड़ते हुए वहाँ जाते, अपनी पुरानी कॉपियों से नाव बनाते और उन्हें बहाकर दूर तक उनका पीछा करते। कभी-कभी उन नावों के साथ अपने सपने भी बहा देते थे। जिसकी नाव सबसे आगे निकलती, वही विजेता होता।
जब हम बहुत देर तक गधेरे के साथ खेलते रहते, तब ईजा घर से पुकारती —
“भींजि जाण लाग्या! आ घर!”
यानि “भीगो मत, घर आ जाओ!”
ईजा डांटती ज़रूर थी, लेकिन उस आवाज़ में डांट से कहीं ज़्यादा ममता होती थी।
सावन का महीना आते ही मेरा गांव जैंती एक नई छटा में नहाया हुआ प्रतीत होता था। महिलाएं हरे रंग की साड़ियों, काँच की चूड़ियों और गाढ़ी मेंहदी से सजतीं। मेरी ईजा हर सोमवार सुबह शिवजी के थान (मंदिर) में जाकर बेलपत्र, धतूरा और काले तिल से जलाभिषेक करतीं। साथ में गांव की महिलाएं झुंड बनाकर जातीं और रास्ते भर पहाड़ी भजन गातीं —
**भोले बाबा शिव कैलाशवासी, पानी देयौं गौंछी झासी**
उन गीतों में केवल भक्ति नहीं, बल्कि बारिश की आस, जीवन की सहजता और प्रकृति से गहरा जुड़ाव समाया होता था।
फिर भाई-बहन के प्रेम का त्योहार रक्षाबंधन आता था। सुबह होते ही बहनें “भिटोरी ” बाजार से लाई गई रंगीन राखियाँ निकालतीं। माँ जौं (जौ) से टीका बनातीं, जिसमें एक कटोरी में जौं, दूसरी में दही और थोड़ा चावल होते थे। हम सभी भाई-बहिन शरारत करते, लेकिन राखी बंधते ही गंभीर हो जाते। ईजा लकड़ी से चूल्हे पर आग चलाकर अरसे, पूड़ी, कद्दू की सब्जी और झोली (दही-छाछ से बनी पहाड़ी करी) बनातीं। भोजन तिलम की पत्तियों पर परोसा जाता और खिड़की के बाहर बारिश की बूंदों की टप-टप उस दृश्य को संगीतमय बना देती।
इसके बाद नंदा देवी का पावन मेला पावस की आत्मा था और जो आज भी है। यह मेला अल्मोड़ा के नंदा देवी मंदिर में लगता है। हमारे गांव के लोग भी इस मेले में जाने की तैयारियाँ हफ्तों पहले शुरू कर देते थे। हमारे गांव से कई परिवार अल्मोड़ा जाकर नंदा-सुनंदा की डोली देखते और लौटकर मेले की झांकी, सजावट और अनुभव साझा करते।
एक महिला अपनी बहू से बोली —
“रे ब्वे, एबार की नंदा देवी की झांकी तो बिल्कुल जीवित सी लागी, आँख झपकने तक को मन नै हो!”
(“अरे बहू, इस बार नंदा देवी की झांकी तो साक्षात लग रही थी, आंख झपकने तक को मन नहीं कर रहा था।”)
घर-घर दीप जलते, देवी गीत गाए जाते —
“जय हो नंदा मइया, हिमाली रानी…”
हम बच्चे भी मंडली बनाकर झांकियों की नकल करते, गत्ते और बाँस से छोटी डोलियाँ बनाते और पूरे मोहल्ले में नाचते-गाते घूमते।
पावस ऋतु में केवल त्योहार ही नहीं, खेतों का जीवन भी पूरे रंग में होता। सुबह स्कूल जाने से पहले और लौटकर शाम को, हम धान की रोपाई में हाथ बँटाते। महिलाएं छंत्याली गीत गाते हुए कीचड़ में एकसुर में काम करतीं —
“छंत्यालि बैण्यू, न्हैली धार……”
गाँव के बच्चे खेत के कोनों में मिट्टी के घर बनाते, कीचड़ से खेलते और कभी-कभी किलमोड़े के झाड़ से पत्ते तोड़कर पकौड़ी की दुकान चलाते।
मेरे विद्यालय सर्वोदय इंटर कॉलेज, जैंती में भी पावस ऋतु के समय बहुत सुंदर अनुभव होता था। कोहरे से ढके पहाड़ी रास्तों पर हम भीगते हुए स्कूल पहुँचते। बरामदे में जूते निकालकर कपड़े सुखाते और शिक्षक मुस्कुराकर कहते —
“बड्डा हिम्मती छौं! बारिश मा भी स्कूल आइ गेछ।”
(“बहुत हिम्मती हो! बारिश में भी स्कूल आ गए हो।”)
बारिश में पढ़ाई का आनंद भी कुछ और ही था — खिड़की के बाहर बारिश की धारें और भीतर गुरुजनों का ज्ञान। लंच में भीगे भुट्टे, आम की चटनी और दोस्तों की हंसी से वो दिन भर जाता था।
आज दिल्ली जैसे महानगर में जब मैं अपने घर की खिड़की से बारिश देखता हूँ, तो हमारे गांव जैंती की वही छतें, वही गलियाँ, वही गीत और वही बूँदें याद आती हैं। बरसात अब सिर्फ मौसम नहीं रही — वह मेरे बचपन की धड़कन है, ईजा के आँचल की सोंधी गंध है और मिट्टी से सने उन दिनों की मासूम मुस्कान है।
योगेश गहतोड़ी