
1- प्रारम्भिक पृष्ठभूमि-
हजारों वर्षों से वैदिक सनातन धर्मी जैन और बौद्ध मतावलम्बी दुनिया की सबसे प्राचीन और दुर्गम कैलाश-मानसरोवर तीर्थयात्रा करते आये हैं। इस यात्रा का उल्लेख महाभारत में भी है। प्रथम जैन तीर्थकर ऋषभदेव का निर्वाण स्थल यहीं अष्टपाद नामक स्थान पर है, जो कैलाश पर्वत के पाप बिन्दु पर है। इनकी चर्चा और चरित्र श्रीमद्भागवत महापुराण में विस्तार से आयी है। स्वामीनारायण संप्रदाय के संस्थापक नीलकण्ठ वर्णी फरवरी 1793 में कैलाश यात्रा पर आये थे। गुरुनानक भी इस यात्रा पर गये थे।
एक समय था, जब कैलाश यात्रा पर जाने वाले सोचते थे कि शायद आयेंगे या नहीं? 1962 के युद्ध के बाद चीन द्वारा भारतीय मार्गों से यात्रा बन्द कर दी गयी जो अटलजी के प्रयासों से 1981 में पुन: प्रारम्भ हुई, जो वर्तमान दशक में गलवान में चीनी हमले के बाद पुन: बन्द हुई और इस वर्ष शुरु हुई। हजारों वर्षों से चल रही यह यात्रा अमित्र देश के नियन्त्रण में है, जिसने प्रदूषण रोकने के नाम पर वहाँ स्नान करना प्रतिबन्धित कर दिया है। वहाँ से केवल 10 लीटर जल लाने की अनुमति है।
2- हर ग्रन्थ में मिलता है उल्लेख-
मानसरोवर का वर्णन हमारे आदिग्रन्थों में मिलता है। रामायण, महाभारत, सभी पुराणों, विशेषकर स्कंदपुराण में इसका बहुत ही सुन्दर ढ़ंग से वर्णन किया गया है। बाणभट्ट की कादम्बरी, कालिदास के रघुवंश और कुमार संभव, संस्कृत और पाली के बौद्ध धार्मिक ग्रन्थों में इसका सुन्दर वर्णन है। बौद्ध ग्रन्थों में इसे अनोतत्त या अनवतप्त, जो ऊष्मा और कष्ट से परेशान है, कहा गया है। जैन ग्रन्थों में इसे पद्मसर कहा गया है।
इसके उत्तर में कैलाश, दक्षिण में गुरला मान्धाता, पश्चिम में राक्षस (रावण) ताल है। मानसरोवर कई लहरें बहुत तेज होती हैं, किन्तु पानी इतना निर्मल है कि तल के पत्थर साफ चमकते हुए दिखाई देते हैं। प्रमुख सन्यासी वैज्ञानिक स्वामी प्रणवानन्द उ०प्र० के तत्कालीन राज्यपाल डाॅ० संपूर्णानन्द की सहायता से 21 बार कैलाश यात्रा पर गये। विशेष नौका के माध्यम से मानसरोवर की गहराई मापी और सिद्ध किया कि गंगा का उद्गम भी मानसरोवर में है और उसकी अन्तरधारा गौमुख में निकलते है।
यह यात्रा अनिर्वचनीय और शब्दातीत है। हिन्दू अनेक वर्षों तक इसकी प्रतीक्षा करते हैं। कैलाश मानसरोवर संसार का सबसे बड़ा जलोद्गम् क्षेत्र है। यहाँ से सतलज, करनाली, सिन्धु, मेकांग, ब्रह्मपुत्र निकलती हैं। भयंकर शीतकालीन समयानुसार में यहाँ वैदिक सन्यासी बर्फ ढके मानसरोवर पर चलते और एक वस्त्र में साधना करते देखे गये हैं। खनिजों और अपरिमित जङी-बूटियों का यह अपरिमित भण्डार है। नेपाल मार्ग से भी बड़ी संख्या में यात्री यहाँ जाते हैं और अब चीन ने मानसरोवर के निकट गुंसा हवाई अड्डा बना दिया है, जिसे ओर से बीजिंग, ल्हासा होते हुए अनेक विदेशी यहाँ आते हैं। कैलाश पर्वत के दर्शनों तक पहुँचना स्वप्नवत है। कैलाश के आरोहण की अनुमति अभी तक किसी भी राज्य-सत्ता ने नहीं दी है। यहाँ से गौरीकुण्ड के दिव्य दर्शन होते हैं। इसी पर्वत शिखर पर तारा देवी का अत्युच्च तान्त्रिक अनुष्ठान भी होता है। कैलाश परिक्रमा से वापस आते तिब्बत के महान योगी मिलारेपा की गुफा के दर्शन होते हैं, परन्तु वहाँ जाने की अनुमति नहीं है।
दो पहाड़ियों के बीच स्फुटिक सा निर्मल गहरे नीले रंग का जलाशय राक्षस ताल है, जिसे रावण-हृद भी कहते हैं। इसका जल आचमन या स्नान के लिए शुभ नहीं है न यहाँ कोई पूजा होती है। हाँ! मानसरोवर स्नान कर सूर्य को अर्घ्य, गायत्री मन्त्र और महामृत्युंजय के जप का विधान है, जो कि सर्वथा उचित और वैज्ञानिक है। ठीक सामने ज्योतिर्लिंग रुपी शिव के दर्शन, जो शिवलिंग के आकार का हिमखण्ड है। नीला आसमान, आस-पास कुछ नहीं, मात्र एक ज्योतित स्वरुप कैलाश पर्वत दिखता है। यहाँ का अनुभव साक्षात प्रभु दर्शन से कम नहीं है। प्रथम दर्शन ही अवाक्, शब्दातीत कर देता है और एक गहन मौन चारों ओर से घेर लेता है।
साभार रचना संकलन एवं प्रस्तुति-
पं० जुगल किशोर त्रिपाठी (साहित्यकार)
बम्हौरी, मऊरानीपुर, झाँसी
लेखक- एक राज्यसभा सांसद पुस्तक ‘कैलाश यात्रा’ से उद्धृत