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गद्य आलेख: कबीर के राम

भारतीय संत परंपरा में संत कबीर दास जी एक अत्यंत प्रतिष्ठित और प्रेरणादायी कवि रहे हैं। वह केवल एक भक्त कवि नहीं थे, बल्कि समाज में व्याप्त अंधविश्वास, पाखंड और भेदभाव के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले महान संत थे। कबीर जी के विचारों और काव्य का केंद्र “राम” हैं, परंतु उनके राम केवल त्रेता युग के राजा श्रीराम नहीं हैं, बल्कि वे एक निराकार, निर्गुण और सर्वव्यापक परमात्मा के प्रतीक हैं।

1. कबीर के राम: मूर्ति नहीं, सर्वव्यापक ब्रह्म का नाम

कबीर जी के अनुसार, राम किसी विशेष धर्म, जाति या संप्रदाय तक सीमित नहीं हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर को हिंदू या मुसलमान के नाम से बाँटना अज्ञानता है। ईश्वर तो सबमें समान रूप से विद्यमान हैं।

🔹 कबीर जी कहते हैं:
“राम रहीम एक ही जाणो,
कह कबीर यह भ्रम न मानो।”
यह दोहे के अनुसार राम और रहीम में कोई भेद नहीं, ईश्वर केवल एक है, जिसे लोग अपने-अपने विश्वास अनुसार पुकारते हैं।

🔹 एक और दोहे में कबीर दास जी कहते हैं:
“राम कहाँ खोजे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में…”
कबीर जी हमें बताते हैं कि ईश्वर को मंदिरों और जंगलों में ढूँढने की आवश्यकता नहीं, वह तो हमारे हृदय में ही वास करते हैं।

2. राम-नाम: केवल जप नहीं, आत्मिक अनुभव

कबीर जी के लिए “राम-नाम” का अर्थ केवल जप या उच्चारण नहीं है। उनके लिए यह एक गहन आत्मिक अनुभव है — जो भक्ति, प्रेम, ज्ञान और वैराग्य से जुड़ा हुआ है।

🔹 कबीर जी कहते हैं:
“राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट”
अंत काल पछताएगा, जब प्राण जाएंगे छूट।”
इसका अर्थ है कि राम-नाम अमूल्य है। जीवन में जब तक समय है, तभी उसका अनुभव और अभ्यास कर लेना चाहिए। मरणोपरांत पछताने से कुछ नहीं होगा।

3. कबीर के राम: समता और सामाजिक न्याय के प्रतीक

कबीर जी ने समाज में फैली जात-पात, ऊँच-नीच और बाह्य आडंबर का तीव्र विरोध किया। उनके राम सभी के लिए समान हैं, चाहे वह किसी भी जाति या वर्ग का व्यक्ति क्यों न हो।

🔹 कबीर जी स्पष्ट शब्दों में कहते हैं:
“जो तू बामन-बामनी जायो, आन बाट ते आयो।
मोहि तो चमारन चाकरी, जात-जात में जायो॥”
इसका भाव है कि कोई मनुष्य जन्म से ऊँचा या नीचा नहीं होता, सच्चा भक्त वही है जिसका हृदय निर्मल है और जिसकी भावना शुद्ध है। कबीर के राम समभाव और मानवता के सच्चे प्रतीक हैं।

4. राम: आत्मा के भीतर बसे सत्य

कबीर जी बार-बार इस बात पर बल देते हैं कि राम को बाहर ढूँढने के बजाय अपने भीतर झाँकना चाहिए। जब मनुष्य का मन निर्मल और अहंकार शून्य हो जाता है, तभी उसे राम का वास्तविक अनुभव होता है।

🔹 कबीर जी कहते हैं:
“काहे रे बन खोजन जाई, सारै मंहिं तोहीं बिराजत, फिरि बन काहे को जाई।”

🔹 एक और दोहे में कबीर दास जी कहते हैं:
“मन के माजे जो राम बसे हैं, वे हरि मूरत भिन्न न जानो।”
कहे कबीर सोई जनु बूझे, जो भीतर झाँके, बाहर न ताको॥”
इन पंक्तियों में कबीर जी स्पष्ट करते हैं कि सच्चे राम की खोज आत्मा के भीतर ही संभव है, किसी बाहरी साधन या कर्मकांड में नहीं हैं।

5. “कबीर के राम: भक्ति, बोध और ब्रह्म की एकात्म अनुभूति”

संत कबीर दास जी ने अपने निम्न दोहों के माध्यम से “कबीर के राम” का सार अत्यंत सुंदर और सारगर्भित ढंग से बताया है।

कबीर का यह राम न रघुवंसी, न दशरथ का बेटा।
वह तो घट-घट व्याप्त है, सब जीवों में लेटा॥
(कबीर दास इस दोहे में यह संदेश दे रहे हैं कि सच्चा ईश्वर (राम) केवल मंदिरों, मूर्तियों या ग्रंथों तक सीमित नहीं, वह तो हर जीव, हर व्यक्ति के भीतर है। इसलिए उसे खोजने के लिए बाहर नहीं, अपने भीतर झाँकना चाहिए।)

राम रहीम एक है, नाम धराया दोय।
कहै कबीर सुनो भइ साधो, झगड़े का क्यों होय॥
(कबीर दास जी इस दोहे में कहते हैं कि धर्म के नाम पर झगड़ने से बेहतर है कि हम सब एक ही परमात्मा को प्रेम और श्रद्धा से याद करें, चाहे उसका नाम कुछ भी हो।)

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर॥
(संत कबीर जी इस दोहे के माध्यम से कहते हैं कि केवल हाथ में माला फेरने से कुछ नहीं होगा, जब तक मन में परिवर्तन नहीं होगा, सच्ची भक्ति संभव नहीं है।)

राम नाम की लौ लगी, ऐसी लगी जो बुझै न।
जित देखूँ तित राम है, राम बिन और न सूझै न॥
(यह दोहा कबीर जी की अद्वैत भक्ति और पूर्ण ईश्वर-चेतना का प्रतीक है। जब कोई साधक राम नाम में पूर्णतः लीन हो जाता है, तो वह संसार के हर रूप में उसी परमात्मा को देखता है।)

6. कबीर के राम — आत्मा का आलोक

कबीर जी के राम केवल धार्मिक उपासना के विषय नहीं हैं, वे प्रेम, करुणा, सत्य, आत्मबोध और सामाजिक समरसता के साक्षात प्रतीक हैं। उनका संदेश है कि राम कोई स्थान विशेष में नहीं रहते, बल्कि प्रत्येक प्राणी के भीतर विराजमान हैं।

🔹 कबीर जी के अनुसार:
“जहाँ न जगत का जंजाल, न मोह-माया का जाल,
वहीं बसे हैं राम मेरे, सच्चा निश्चल नाथ॥”
कबीर जी हमें यह सिखाते हैं कि ईश्वर को अनुभव करना है, केवल पूजना नहीं। जो व्यक्ति राम को अपने अंतर में पहचान लेता है, वह सभी बंधनों से मुक्त होकर सच्ची शांति और मुक्ति को प्राप्त करता है।

“कबीर के राम” त्रिशब्द संकलन का आशय यह है कि ईश्वर को पहचानने के लिए न तो जाति की आवश्यकता है, न स्थान की, और न ही किसी विधि-विधान की। बल्कि आवश्यक है — निर्मल मन, सच्चा प्रेम और आत्मिक समर्पण।

कबीर दास जी की वाणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, क्योंकि वह मानवता, समानता और आत्मिक चेतना को उजागर करती है।

“कबीर के राम” का भाव आज भी उनके दोहों में सजीव रूप से अनुभूत होता है।

योगेश गहतोड़ी (ज्योतिषाचार्य)
नई दिल्ली

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