
।। अक्षरारम्भ संस्कार ।।
!! अक्षरारम्भ संस्कार की महिमा !!
अक्षरारंभ संस्कार क्षर {जीव}– का अक्षर {परमात्मा}– से संबंध कराने वाला संस्कार है, इस दृष्टिसे इस संस्कारकी मानव जीवनमें महती भूमिका है । गीतामें स्वयं भगवान अक्षर की महिमा बताते हुए कहते हैं कि अक्षरों में ‘अ’ कार मै ही हूँ— अक्षराणामकारोऽस्मि ।
इसी प्रकार ‘गिरामस्येकमक्षरम्’ कहकर उन्होंने अपने को ओंकार अक्षर बताया है । इतना ही नहीं उन्होंने अक्सर की महिमा का ख्यापन करते हुये कहा— ‘अक्षरं ब्रह्म परमं’ अर्थात परम अक्षर ही परमब्रह्म परमात्मा है, जो ओंकार पदसे अभिव्यक्त है— ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म’ । इसीलिए पार्टी पूजनमें प्रारम्भमें ‘ॐ नमः सिद्धम्’ लिखाया जाता है ।
इस अक्षरारम्भ संस्कार को ही लोकमें विद्यारंभसंस्कार और ‘पाटीपूजन’ आदि नामोंसे अभिहित किया जाता है ।
प्रत्येक शुभ कर्म के पहले जैसे आदिपूज्य गणेश जी के पूजन का विधान है, वैसे ही इस अक्षरारम्भ या विद्यारंभसंस्कार के श्रीगणेशमें भी गणेशजीके ध्यान-पूजन का विधान है । श्रीगणेशद्वादशनामस्तोत्रकी फलश्रुतिमें विद्यारम्भ संस्कारकी चर्चा आयी है, जिसमें कहा गया है कि, श्रीगणेशजीके द्वादश नामोंका स्मरण करनेसे विद्यारम्भ विवाह आदि संस्कारों में कोई विघ्न-बाधा नहीं आते—
विद्यारंभे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा ।
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ।।
इस प्रकार अक्षरारम्भ या विद्यारंभसंस्कार- मानव-जीवन का अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कार है, इसकी प्रयोग विधि मे— प्रतिज्ञासंकल्प, देवताओंकी स्थापना, पूजन, हवन, अक्षरारमाभ की विधि, गुरु द्वारा लेखन तथा वाचन भूयसी दक्षिणासंकल्प और भगवत् स्मरण आदि का विधान है ।।
साभार— गीता प्रेस गोरखपुर
लेखन एवं प्रेषण—
पं. बलराम शरण शुक्ल
नवोदय नगर हरिद्वार