
द्यूत, जुआ जिसको कहते है,
औरों का छीने सुख-चैन।
खुद को भी बर्बाद करे ये,
न सो पावे नर दिन-रैन।।
सिर्फ काम का ये प्रतीक न,
निहित बुद्धिमत्ता इसमें।
सात्विक, राजस, तमस रुप ये,
सभी समाये हैं इसमें।।
सात्विक भाव से जब नर खेलें,
देता है आनन्द महा।
तभी सार्थकता है इसकी,
अति उत्तम लगे खेल अहा।।
भाव राजसी से जब खेलें,
हार-जीत का भाव जगे।
द्वन्द्व पूर्ण ये हार-जीत के,
हो सम्मुख प्रतिद्वन्दी सगे।।
यही द्यूत क्रीड़ा जब होती,
तामसता से पूर्ण, असर।
सदा दिखाती, दाँव-पेंच पर,
लग जाता सम्मान सिहर।।
हार-जीत के द्वन्द्वों से हो,
पूर्ण, मिटा देती सम्मान।
जीवन में अपयश भर देती,
यही द्यूत क्रीड़ा लो जान।।
महाभारत में यही हुआ था,
हुआ सकल कुल का संहार।
दुर्योधन, शकुनी की चाल से,
हटा सकल धरती का भार।।
फँसे युधिष्ठिर कुटिल चाल में,
एक के बाद दूसरा दाँव।
गये हारते सब-कुछ खोया,
नहीं सके रख निज घर पाँव।।
राज गया संग सारा वैभव,
पत्नी का सम्मान तजा।
शेष रहा न कुछ भी, हारे,
भ्राताओं को, पायी सजा।।
हुआ युद्ध फिर जग ये जाने,
नल-दमयन्ती की गाथा।
सभी जानते द्यूत क्रिया में,
तजा राज, वन पत्नी साथा।।
भटके जाने कहाँ-कहाँ वे,
फिर दोनों में हुआ विछोह।
बड़े-बड़े नृप नष्ट हुए हैं,
द्यूत क्रिया से जिनका मोह।।
मद्यपान इसका साथी है,
कोई कामना बुरी नहीं।
अगर लक्ष्य हो सात्विकता का,
करती है उद्धार यही।।
तामस गुण से प्रेरित होकर,
खा जाती घर का सुख-चैन।
धन-दौलत और माल-खजाना,
राजपाट खोता नृप, रैन।।
सो न पाता सदा ही जलता,
पश्चाताप अग्नि में भारी।
साहित्यिक सचेतना के संग,
बढ़ें, करें जीवन तैयारी।।
रचनाकार-
पं० जुगल किशोर त्रिपाठी (साहित्यकार)
बम्हौरी, मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)