
मौन हुई ज़िन्दगी शोरगुल में,
डर में पल रही है शेष बची ज़िन्दगी।
बेख़बर आज है अनहोनी से,
क्या पता कब बन जाए
आज ही की हिस्ट्री।
प्यासी ख़ून की है प्रकृति,
समय-सारिणी बजा रही है बांसुरी।
रंग बदल रहा है घड़ी-घड़ी आसमान,
नदियाँ उगल रही हैं लहू की उल्टी।
इंसान अपना मकान तोड़ रहा है ख़ुद ही,
और नाम बदनाम कर रहा है रब का।
ज़िन्दगी मौन है, मौन ही है शहर,
मौन-सा मौन है खामोश बस्ती।
आर एस लॉस्टम
लखनऊ