
देश हमारा स्वर्ग से सुन्दर, इसका मनमोहक, शुभ वेश।
झीलें, नदियाँ, पर्वत, झरने, छटा प्राकृतिक हरती क्लेश।।
इसके जैसा कोई नहीं है, विविध रंग हैं रुप अनेक।
भाँति-भाँति के पुष्पों पर नित, मँडराते भौंरे अति नेक।।
रबि किरणों से पुष्प सुशोभित ऐसे सुन्दर लगते हैं।
माटी का सौन्दर्य अनूठा, खिलता इनसे, सब कहते हैं।।
हरियाली जब विविध रंग में, धरे रुप कई धरती पर।
छटा अनोखी, अनुपम होती, देव पधारें धरती पर।।
माटी मेरी देश का चन्दन, कहते सभी, इसे मानें।
माटी जननी, पोषक सबकी, पालक है, सब सन्मानें।।
माटी की खुशबू है निराली, सौंधी-सौंधी महँक उठे।
माटी नर-नारी का धन है, माटी ऐक, न कभी बँटे।।
इसी माटी की खुशबू से सब, खिंचकर भारत आते हैं।
राम-कृष्ण, रैदास-कबीरा, सिक्ख सभी गुण गाते हैं।।
मीरा, नानक, पलटू, सूरा अरु फरीद ने जान इसे।
इस माटी की महिमा आयी, वेद-पुराण, उपनिषद से।।
रचनाकार-
पं० जुगल किशोर त्रिपाठी (साहित्यकार)
बम्हौरी, मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)