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बहुत ही विशिष्ट लेख
{बहुत बड़ा लेख ! कृपया समय लेकर पढ़ें !!}
” ।। समुद्र मन्थन ।।
१. वेदार्थ भेद- {१} ३-३ विभाग-
वेद ३ स्तर के विश्वों के समन्वय रूप में सर्वविद्या प्रतिष्ठा है-
ब्रह्मा देवानां प्रथमं सम्बभूव, विश्वस्य कर्त्ता भुवनस्य गोप्ता ।
स ब्रह्मविद्या सर्वविद्या प्रतिष्ठा, ज्येष्ठाय पुत्राय अथर्वाय प्राह ।।१।। {मुण्डक उपनिषद्, १/१/१}
एक ही बार या पद्धति से पूरा विश्व नहीं समझ सकते,
अतः ३-३ संस्थाओं में समझते हैं-
{१} ३ विश्व संस्था-
{क} अध्यात्म-स्वभाव
{मनुष्य शरीर के भीतर का विश्व}
{ख} अधिभूत-क्षर विश्व-पृथ्वी पर दीखती क्षय होती वस्तुएं ।
{ग} अधिदैव- पुरुष या विश्व रूपी चेतन तत्त्व । परम पुरुष या परब्रह्म से आकाश के ५ पर्व ।।
{२} ३ क्रिया संस्था-
{क}ब्रह्म -सम्पूर्ण विश्व ।
इसमें सूक्ष्म स्पन्दन रूप क्रिया है ।
{ख} कर्म- गति रूप ।
आन्तरिक गति नहीं दीखती है, वह कृष्ण गति है । आत्मा की गति जब पृथ्वी तक ही सीमित रह जाय, तो वह कृष्ण गति है । जब बाह्य लोकों में गति होती है, वह शुक्ल गति है {गीता, ८/२४-२६} ।
{ग} यज्ञ- जिस कर्म से चक्रीय क्रम में इच्छित वस्तु का उत्पादन हो, वह यज्ञ है ।
किं तद् ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ।।१।।
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
{गीता, अध्याय ८}
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविध्यष्वमेषवोऽस्त्विष्त कामधुक् ।।१०।।
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। (गीता, अध्याय ३)
{३} कर्म संस्था- (क) अनन्त ज्ञान, {ख} ज्ञेय-किसी वस्तु के साम {महिमा} में ही ज्ञान हो सकता है-अतः वेदानां सामवेदोऽस्मि {गीता, १०/२२},
{ग} परिज्ञाता- ज्ञेय वस्तु का भी उतना ही ज्ञान हो सकता है जितना प्रभाव द्रष्टा तक शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध से पहुंच सकता है । उसमें भी द्रष्टा की ग्रहण क्षमता, उसे समझने तथा भाषा में व्यक्त करने की क्षमता से वह कम होता जाता है । वस्तु से तेज आदि निकलने पर उसमें परिवर्तन होता है, और मूल का कभी पता नहीं चलता ।।
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्म चोदना । (गीता, १८/१८)
तैत्तिरीय उपनिषद्, शीक्षा वल्ली, अनुवाक् ३ में ५ विश्व संस्था हैं-
अधिलोक {आधिभौतिक},
अधिज्यौतिष {आधिदैविक}, अधिविद्या {शिक्षा संस्था}, अधिप्रजा {समाज संस्था}, अध्यात्म।
आधिदविक के ही ५ x ३ भेद हैं-
५ मण्डल हैं-
स्वायम्भुव {पूर्ण विश्व},
परमेष्ठी {ब्रह्माण्ड},
सौर मण्डल, चान्द्र मण्डल,
भूमण्डल । प्रत्येक के ३-३ मनोता हैं ।।
सहस्रधा पञ्चदशानि उक्था यावद् द्यावा पृथिवी तावदित्तत्
{ऋक्, १०/११४/८}
यानि पञ्चधा त्रीणि तेभ्यो न ज्यायः परमन्यदस्ति ।
{छान्दोग्य उपनिषद्, २/२२/२}
तिस्रो वै देवानां मनोताः, तासु हि तेषां मनांसि ओतानि । वाग् वै देवानां मनोता, तस्यां हि तेषां मनांसि ओतानि । गौः हि देवानां मनोता, तस्यां हि तेषां मनांसि ओतानि । अग्निः वै देवानां मनोता, तस्मिन् हि तेषां मनांसि ओतानि । अग्निः सर्वा मनोता, अग्नौ मनोताः संगच्छन्ते ।। {ऐतरेय ब्राह्मण, २/१०}
अतः विवाद होने पर कहते हैं-
क्या ३-५ कर रहे हो ?
२. आकाश में समुद्र मन्थन-
{१} ४ समुद्र- आकाश के ३ धामों के ३ समुद्र हैं । परात्पर धाम मिला कर ४ समुद्र हैं । किन्तु यह वर्णनातीत होने के कारण परात्पर कहते हैं ।
परात्पर धाम = रस समुद्र
रसो वै सः, रसं लब्ध्वा आनन्दी भवति
{तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७/२}
परम धाम = ब्रह्माण्ड समूह-सलिल {तरंग सहित रस}, सरिर् (शरीर) तरंगों के कारण ब्रह्माण्ड कण रूपी शरीर ।
मध्यम धाम- ब्रह्माण्ड- अप्, शब्द सहित अम्भ ।
अवम धाम = सौर मण्डल-मर रूपी अप् का क्षेत्र मरीचि । पृथ्वी कक्षा तक ताप, यूरेनस कक्षा तक वायु
{सूर्य से निकले कणों का प्रवाह- ३००० सौर व्यास तक- विष्णु पुराण, २/८/२},
तेज क्षेत्र {सौर मण्डल} सीमा तक इसका प्रकाश ब्रह्माण्ड से अधिक है {ऋक्, १०/१८९/३}
त्रिंशत् धाम वि-राजते वाक् पतङ्गाय धीयते ।
या ते धामानि परमाणि यावमा या मध्यमा विश्वकर्मन्नुतेमा ।। {ऋक्, १०/८१/४}
विश्वकर्मा रूप में ब्रह्म द्वारा निर्मित परम, अवम, मध्यम धाम हैं ।
तिस्रो मातॄस्त्रीन्पितॄन्बिभ्रदेक ऊर्ध्वतस्थौ नेमवग्लापयन्ति ।
मन्त्रयन्ते दिवो अमुष्य पृष्ठे विश्वमिदं वाचमविश्वमिन्वाम् ।।
{ऋक्, १/१६४/१०}
तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।
ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ।।
{ऋक्, २/२७/८}
इन तीनों धाम में भूमि या माता है {सीमा बद्ध पिण्ड}, उसका आकाश द्यु या पिता है । बीच में अन्तरिक्ष या व्रत हैं । इन धामों के अन्तरिक्ष अभी जैसे दीख रहे हैं, वही इनका आदि रूप या आदित्य था । उत्तम, मध्यम तथा अवम धामों के आदित्य क्रमशः अर्यमा, वरुण, मित्र हैं ।।
{२} मातरिश्वा- कई प्रकार के पदार्थों को मिला कर हिलाने से नये पदार्थ बनते हैं। पदार्थों को मिलाना या उससे कुछ बनाना पाक है। मिलाने के बाद हिलाना मातरिश्वा या वायु है। यह माता की तरह जन्म देता है अतः इसे मातरिश्वा कहते हैं। चेतन तत्त्व के विभिन्न अङ्ग सुपर्ण हैं-वह समुद्र में प्रवेश कर मन से विचार कर भूमि का निर्माण करता है और उसी भूमि पर निवास करता है ।।
प्राणो मातरिश्वा ।
{ऐतरेय ब्राह्मण, २/३८}
यावन्मात्रं उषसो न प्रतीकं सुपर्ण्यो वसते मातरिश्वः।
{ऋक्,१०/८८/१९}
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत् ।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ।।
{ईशावास्य उपनिषद्, ४}
एकः सुपर्णः स समुद्रमाविवेश स इदं भुवनं वि चष्टे ।
तं पाकेन मनसापश्यमन्तितस्तं, माता रेऴ्हि स उ रेऴ्हि मातरम् ।।
{ऋग् वेद १०/११४/४}
{३} स्वयम्भू में मन्थन- रस रूप में मन्थन से तरंग रूप सलिल् हुआ, उससे कुछ घने मेघ जैसे पिण्ड निकले (स्कन्द) जो द्रव जैसे थे {द्रप्सः = drops} ।
द्रप्सश्चस्कन्द प्रथमाँ अनु द्यूनिमं च योनिमनु यश्च पूर्वः।।
(ऋक्, १०/१७/११, वाज. यजु, १३/५
यस्ते द्रप्सः स्कन्दति ।।१२।।
{ऋक्, १०/१७/१२}
ये ब्रह्माण्ड रूपी द्रप्स मत्स्य की तरह तैर रहे हैं, अतः इनको आकाश का नित्य मत्स्य कहा है ।।
समुद्राय शिशुमारान् आलभते पर्जन्याय मण्डूकान् । अद्भ्यो मत्स्यान् मित्राय कुलीपयान् वरुणाय नाक्रान् ।।
{वाज. यजु. २४/२१} ।
पुरोळा इत् तुर्वशो यक्षुरासीद् राये मत्स्यासो निशिता अपीव ।।
{ऋक्, ७१/८/६}
{४} परमेष्ठी में मन्थन- ब्रह्माण्ड सबसे बड़ी ईंट है, अतः इसे परमेष्ठी कहा गया है । इसका निर्माण स्थल कूर्म है, जो ब्रह्माण्ड का १० गुणा है ।
अतः ब्रह्मवैवर्त्त प्राण प्रकृति खण्ड अध्याय ३ में इसे गोलोक और ब्रह्माण्ड को महाविष्णु रूप विराट् बालक कहा गया है ।।
स यत् कूर्मो नाम-एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत । यदसृजत-अकरोत्-तत् । यदकरोत्-तस्मात् कूर्मः। कश्यपो वै कूर्मः । तस्मादाहुः-सर्वाः प्रजाः काश्यप्यः-इति ।
{शतपथ ब्राह्मण, ७/५/१/५}
मानेन तस्य कूर्मस्य कथयामि प्रयत्नतः ।
शङ्कोः शत सहस्राणि (१ पर १८ शून्य) योजनानि वपुः स्थितम् ।।
{नरपति जयचर्या, स्वरोदय, कूर्मचक्र}
ब्रह्माण्ड का आकार परार्द्ध {१ पर १७ शून्य} योजन कहा है-
ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे ।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ।। {कठोपनिषद्, १/३/१} = कूर्म का आकार १०० हजार शङ्कु {१० घात १३} योजन है। यहां पृथ्वी वायस का १००० भाग योजन है। उससे कोटि x कोटि = १० घात १४ गुणा बड़ा अर्थात् १० घात १७ योजन का ब्रह्माण्ड है । उसका १० गुणा बड़ा कूर्म है। इसी कूर्म में ब्रह्माण्ड रूपी महा-पृथ्वी घूम रही है ।।
ब्रह्माण्ड अपने केन्द्र कृष्ण के चारों तरफ परिक्रमा कर रहा है, जिससे लोक बने हैं या वर्तमान हैं ।
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो, निवेशयन् अमृतं मर्त्यं च ।
हिरण्ययेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन् ।।
{ऋग्वेद, १/३५/२, वाज यजु, ३३/४३, तैत्तिरीय सं, ३/४/११/२}
यहां सूर्य के २ रूप हैं- वह अपने प्रकाशित मार्ग {हिरण्यय} पर ब्रह्माण्ड केन्द्र के आकर्षण से उसकी परिक्रमा कर रहा है। यह केन्द्र कृष्ण {कृष्ण विवर} है, जो ब्रह्माण्ड के लिए वामन है । सौर मण्डल में सूर्य ही वामन है ।
ब्रह्माण्ड में खर्व संख्या में तारा रूप कण हैं, उतने ही मनुष्य मस्तिष्क में भी कण हैं {शतपथ ब्राह्मण, १२/३/२/५, १०/४/४/२}।
अतः ब्रह्माण्ड विराट् मन है और उसका अक्ष भ्रमण काल मन्वन्तर है ।
{५} सौर मण्डल- इसमें सूर्य चन्द्र के आकर्षण से पृथ्वी का अक्ष शङ्कु आकार में २६, ००० वर्षों में १ चक्र लगा रहा है जिसे ऐतिहासिक मन्वन्तर कहा है ।।
स वै स्वायम्भुवः पूर्वम् पुरुषो मनुरुच्यते । तस्यैक सप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते ।।
{ब्रह्माण्ड पुराण, १/२/९/३७}
षड्विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषाणि तु। वर्षाणां युगं ज्ञेयं दिव्यो ह्येष विधिः स्मृतः ।।
{ब्रह्माण्ड पुराण, १/२/२९/१९}
इससे क्रान्ति वृत्त तथा विषुव वृत्त के कटान विन्दु कृत्तिका
{कैंची की तरह २ शाखा} तथा विशाखा {विपरीत में द्वि-शाखा मिलन} के बीच
राधा (विशाखा) तथा कृष्ण {आकर्षक} का रास कहा है-
कार्त्तिक्यां पूर्णिमायां तु राधायाः सुमहोत्सवः ।।४७।।
कृष्णः सम्पूज्य तं राधामुवास रासमण्डले ।
कृष्णेन पूजितां तां तु सम्पूज्य हृष्टमानसाः ।।४८।।
{देवीभागवत पुराण ९/१२}
तन्नो देवासो अनुजानन्तु कामम् …. दूरमस्मच्छत्रवो यन्तु भीताः ।
तदिन्द्राग्नी कृणुतां तद् विशाखे, तन्नो देवा अनुमदन्तु यज्ञम् ।
नक्षत्राणां अधिपत्नी विशाखे, श्रेष्ठाविन्द्राग्नीभुवनस्य गोपौ ।।११।।
पूर्णा पश्चादुत पूर्णा पुरस्तात्, उन्मध्यतः पौर्णमासी जिगाय ।
तस्यां देवा अधिसंवसन्तः, उत्तमे नाक इह मादयन्ताम् ।।१२।।
{तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१/१}
{६} भू-मण्डल- पृथ्वी के आवरण रूप वायु मण्डल में मातरिश्वा द्वारा दक्षिण समुद्र से जल वाष्प युक्त मेघ आते हैं {भारत जैसे उत्तर गोल के स्थान में} उनसे वर्षा होती है और हमारा जीवन चलता है ।
अयं वै वायुः मातरिश्वायो अयं पवते । {शतपथ ब्राह्मण,६/४/३/४}
अथ यद्दक्षिणतो वाति । मातरिश्वैव भूत्वा दक्षिणतो वाति ।
(तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/३/९/५)
अन्तरिक्षं वै मातरिश्वनो घर्मः। {तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/२/३/२}
{७} रास- केन्द्रीय कृष्ण की परिक्रमा रूप नृत्य को रास कहते हैं, जिससे सृष्टि होती है । विश्व में हर स्तर पर इसी प्रकार निर्माण चल रहा है । सूक्ष्मतम रूप में परमाणु के कण भी उसकी नाभि का चक्कर लगा रहा हैं । मूर्त विश्व में भी ९ प्रकार के सृष्टि सर्ग हैं । इनके निर्माण के चक्र ९ प्रकार के काल मान हैं-
ब्राह्मं पित्र्यं तथा दिव्यं प्राजापत्यं च गौरवम् ।
सौरं सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव ।। {सूर्य सिद्धान्त, १४/१}
लौकिक रूप में हल्लीषक नृत्य था। भगवान् श्रीकृष्ण केन्द्रित गोपियों का नृत्य दिव्यरास है जिसका विस्तृत वर्णन रास पञ्चाध्यायी में है (भागवत पुराण, १०/२९-३४)। यज्ञ का मूल कृषि है {गीता, ३/११-१४- यज्ञाद् भवति पर्जन्यः, पर्जन्याद् अन्न सम्भवः} ।
कृषि केलिये हल का कर्षण कर भूमि जोतते हैं। उस हल का इषा {धुरी} हलीष {हरीश} है जिसे हर पूजा के केन्द्र में रखते हैं। यह मूल आदित्य अर्यमा का प्रतीक है ।
३. पृथ्वी पर समुद्र मन्थन-
पृथ्वी पर ७ द्वीप तथा उनको घेरने वाले ७ समुद्र हैं । आकाश के ४ धामों के ४ समुद्रों की तरह गौ रूप पृथ्वी के भी ४ समुद्र हैं। पिण्ड रूप में पृथ्वी ग्रह है, क्योंकि आकर्षण से यह ग्रहण करता है । उत्पादक रूप में यह गौ है और ४ उत्पादक भाग ४ समुद्र हैं । गो रूप पृथ्वी के ४ समुद्र हैं-
{१} वायु मण्डल-
वर्षा, आक्सीजन आदि जीव जगत् के जन्म और जीवन के लिये अनिवार्य हैं ।
{२} जीव मण्डल-
भूमि सतह के ऊपर के पौधे और पशु जिनसे अन्न, फल, दूध आदि मिलता है । उनका शारीरिक श्रम भी ।
{३} स्थल मण्डल-
खनिज पदार्थ
{४} जल मण्डल-
समुद्र का जल, घुले हुए खनिज, यातायात ।
पयोधरी भूत चतुः समुद्रां जुगोप गोरूप धरामिवोर्वीम् ।
{रघुवंश, २/३)
अथैष गोसवः स्वाराजो यज्ञः। {ताण्ड्य महाब्राह्मण १९/१३/१}
इमे वै लोका गौः यद् हि किं च गच्छति इमान् तत् लोकान् गच्छति । {शतपथ ब्राह्मण, ६/१/२/३४}
इमे लोका गौः। {शतपथ ब्राह्मण, ६/५/२/१७}
धेनुरिव वाऽइयं (पृथिवी) मनुष्येभ्यः सर्वान् कामान् दुहे माता धेनु-र्मातेव वा ऽइयं (पृथिवी) मनुष्यान् बिभर्त्ति ।
{शतपथ ब्राह्मण, २/२/१/२१}
पृथ्वी के मन्थन या दोहन की चर्चा राजा पृथु के काल में भी है । उन्होंने स्वायम्भुव मनु को बछड़ा बना कर खनिजों का दोहन किया था। स्वायम्भुव मनु काल में खनिज सम्पत्ति का पता लगा । उसका व्यापक खनन पृथु के समय हुआ ।
वायुपुराण, उत्तरार्ध, अध्याय १-
तत उत्सारयामास शिला-जालानि सर्वशः ।
धनुष्कोट्या ततो वैन्यस्तेन शैला विवर्द्धिताः ।।६७।।
मन्वन्तरेष्वतीतेषु विषमासीद् वसुन्धरा। स्वभावेना-भवं-स्तस्याः समानि विषमाणि च ।।१६८।।
आहारः फलमूलं तु प्रजानाम-भवत् किल। वैन्यात् प्रभृति लोके ऽस्मिन् सर्वस्यैतस्य सम्भवः।।१७२।।
शैलैश्च स्तूयते दुग्धा पुनर्देवी वसुन्धरा। तत्रौषधी र्मूर्त्तिमती रत्नानि विविधानि च ।।१८६।।
विष्णु पुराण-(१/१३)-
तत उत्सारयामास शैलां शत सहस्त्रशः । धनुःकोट्या तदा वैन्यस्ततः शैला विवर्ज्जिताः।।८१।।
स कल्पयित्वा वत्सं तु मनुं स्वायम्भुवं प्रभुः। स्वे पाणौ पृथिवीनाथो दुदोह पृथिवीं पृथुः।।८६।।
४. बलि के काल में ऐतिहासिक समुद्र मन्थन-वामन ने बलि से इन्द्र के लिये तीनों लोक ले लिये तो कई असुर असन्तुष्ट थे कि, देवता युद्ध कर के यह राज्य नहीं ले सकते थे, तथा छिटपुट युद्ध जारी रहे । तब विष्णु अवतार कूर्म ने समझाया कि यदि उत्पादन हो तभी उस पर अधिकार के लिये युद्ध का लाभ है। अतः उसके लिये पृथ्वी का दोहन जरूरी है । पृथ्वी की ठोस सतह को खोदकर उनसे धातु निकालने को ही समुद्र-मन्थन कहा गया है । बिल्कुल ऊपरी सतह पर खेती करना दूसरे प्रकार के समुद्र का मन्थन है । भारत में खनिज का मुख्य स्थान बिलासपुर {छत्तीसगढ़} से सिंहभूमि {झारखण्ड} तक है, जो नक्शे में कछुए के आकार का है । खनिज कठोर ग्रेनाइट चट्टानों के नीचे मिलते हैं जिनको कूर्म-पृष्ठ भूमि कहते हैं, अर्थात् कछुये की पीठ की तरह कठोर । इसके ऊपर या उत्तर मथानी के आकार पर्वत है जो गंगा तट तक चला गया है- यह मन्दार पर्वत कहलाता है, जो समुद्र मन्थन के लिये मथानी था । उत्तरी छोर पर वासुकिनाथ तीर्थ है, नागराज वासुकि को मन्दराचल घुमाने की रस्सी कहा गया है । वह देव-असुरों के सहयोग के मुख्य संचालक थे । असुर वासुकि नाग के मुख की तरफ थे जो अधिक गर्म है । यह खान के भीतर का गर्म भाग है । लगता है कि उस युग में असुर खनन में अधिक दक्ष थे अतः उन्होंने यही काम लिया ।।
विष्णु पुराण (१/९)-
मथानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा च वासुकिम्। ततो मथितुमारब्धा मैत्रेय तरसामृतम् ।।८४।।
विबुधाः सहिता सर्वे यतः पुच्छं ततः कृताः। कृष्णेन वासुकेर्दैत्याः पूर्वकाये निवेशिताः ।।
ते तस्य मुखनिश्वासवह्नितापहतत्विषः । निस्तेजसोऽसुराः सर्वे बभूवुरमितौजसः ।।८६।।
देव विरल खनिजों {सोना, चान्दी} से धातु निकालने में दक्ष थे, अतः उन्होंने जिम्बाबवे में सोना निकालने का काम तथा मेक्सिको में चान्दी का लिया । पुराणों में जिम्बाबवे के सोने को जाम्बूनद-स्वर्ण कहा गया है। इसका स्थान केतुमाल {सूर्य-सिद्धान्त, अध्याय १२ के अनुसार इसका रोमक पत्तन उज्जैन से ९०० पश्चिम था}
वर्ष के दक्षिण कहा गया है । यहां हरकुलस का स्तम्भ था, अतः इसे केतुमाल {स्तम्भों की माला} कहते थे ।। बाइबिल में राजा सोलोमन की खानें भी यहीं थीं । मेक्सिको से चान्दी आती थी अतः आज भी इसको संस्कृत में माक्षिकः कहा जाता है । चान्दी निकालने की विधि में ऐसी कोई क्रिया नहीं है जो मक्खियों के काम जैसी हो, यह मेक्सिको का ही पुराना नाम है । सोना चट्टान में सूक्ष्म कणों के रूप में मिलता है, उसे निकालना ऐसा ही है जैसे मिट्टी की ढेर से अन्न के दाने चींटियां चुनती हैं । अतः इनको कण्डूलना = {चींटी, एक वनवासी उपाधि} कहते हैं । चींटी के कारण खुजली {कण्डूयन} होता है या वह स्वयं खुजलाने जैसी ही क्रिया करती है, अतः सोने की खुदाई करने वाले को कण्डूलना कहते थे । सभी ग्रीक लेखकों ने भारत में सोने की खुदाई करने वाली चींटियों के बारे में लिखा है। मेगस्थनीज ने इस पर २ अध्याय लिखे हैं । समुद्र-मन्थन में सहयोग के लिये उत्तरी अफ्रीका से असुर आये थे, जहां प्रह्लाद का राज्य था, उनको ग्रीक में लिबिया {मिस्र के पश्चिम का देश} कहा गया है । उसी राज्य के यवन, जो भारत की पश्चिमी सीमा पर थे, सगर द्वारा खदेड़ दिये जाने पर ग्रीस में बस गये जिसको इओनिआ कहा गया {हेरोडोटस} ।
विष्णु पुराण {३/३}-
सगर इति नाम चकार ।।३६।।
पितृराज्यापहरणादमर्षितो हैहयतालजङ्घादि वधाय प्रतिज्ञामकरोत् ।।४०।।
प्रायशश्चहैहयास्तालजङ्घाञ्जघान ।।४१।। शकयवनकाम्बोजपारदपह्लवाः हन्यमानास्तत्कुलगुरुं वसिष्ठं शरणं जग्मुः ।।४२।।
यवनान्मुण्डित शिरसोऽर्द्धमुण्डिताञ्कान् प्रलम्बकेशान् पारदान् पह्लवान् श्मश्रुधरान् । निस्स्वाध्यायवषट्कारानेतानन्यांश्च क्षत्रियांश्चकार ।।४७।।
अतः वहां के खनिकों की उपाधि धातु नामों के थे, वही नाम ग्रीस में ग्रीक भाषा में गये तथा आज भी इस कूर्म क्षेत्र के निवासिओं के हैं ।
इनके उदाहरण दिये जाते हैं—
{१} मुण्डा- लौह खनिज को मुर {रोड के ऊपर बिछाने के लिये लाल रंग का मुर्रम} कहते हैं। नरकासुर को भी मुर कहा गया है क्योंकि उसके नगर का घेरा लोहे का था {भागवत पुराण, स्कन्ध ३}-
वह देश आज मोरक्को है तथा वहां के निवासी मूर हैं । भारत में भी लौह क्षेत्र के केन्द्रीय भाग के नगर को मुरा कहते थे जो पाण्डु वंशी राजाओं का शासन केन्द्र था
{वहां के पट्टे बाद में दिये गये हैं} । बाद में यहां के शासकों ने पूरे भारत पर नन्द वंश के बाद शासन किया जिसे मौर्य वंश कहा गया । मुरा नगर अभी हीराकुद जल भण्डार में डूब गया है तथा १९५६ में वहां का थाना बुरला में आ गया ।
मौर्य के २ अर्थ हैं- लोहे की सतह का क्षरण {मोर्चा} या युद्ध क्षेत्र {यह भी मोर्चा} है । फारसी में भी जंग के यही दोनों अर्थ हैं । लौह अयस्क के खनन में लगे लोगों की उपाधि मुण्डा है । यहां के अथर्व वेद की शाखा को भी मुण्डक है, जिसका मुण्डक उपनिषद् उपलब्ध है । उसे पढ़ने वाले ब्राह्मणों की उपाधि भी मुण्ड है (बलांगिर, कलाहाण्डी) ।
{२} हंसदा-हंस-पद का अर्थ पारद का चूर्ण या सिन्दूर है। पारद के शोधन में लगे व्यक्ति या खनिज से मिट्टी आदि साफ करने वाले हंसदा हैं ।।
{३} खालको-ग्रीक में खालको का अर्थ ताम्बा है । आज भी ताम्बा का मुख्य अयस्क खालको {चालको} पाइराइट है ।।
{४} ओराम-ग्रीक में औरम का अर्थ सोना है ।
{५} कर्कटा-ज्यामिति में चित्र बनाने के कम्पास को कर्कट कहते थे । इसका नक्शा {नक्षत्र देखकर बनता है} बनाने में प्रयोग है,
अतः {चित्र} नक्शा बनाकर कहां खनिज मिल सकता है उसका निर्धारण करने वाले को करकटा कहते थे । पूरे झारखण्ड प्रदेश को ही कर्क-खण्ड कहते थे ।
{महाभारत, ३/२५५/७} ।
कर्क रेखा इसकी उत्तरी सीमा पर है, पाकिस्तान के करांची का नाम भी इसी कारण है ।
{६} किस्कू-कौटिल्य के अर्थशास्त्र में यह वजन की एक माप है । भरद्वाज के वैमानिक रहस्य में यह ताप की इकाई है । यह उसी प्रकार है जैसे आधुनिक विज्ञान में ताप की इकाई मात्रा की इकाई से सम्बन्धित है
{१ ग्राम जल ताप १० सेल्सिअस बढ़ाने के लिये आवश्यक ताप कैलोरी है}।
लोहा बनाने के लिये धमन भट्टी को भी किस्कू कहते थे, तथा इसमें काम करने वाले भी किस्कू हुए ।
{७} टोप्पो-टोपाज रत्न निकालने वाले ।
{८} सिंकू- टिन को ग्रीक में स्टैनम तथा उसके भस्म को स्टैनिक कहते हैं ।
{९} मिंज- मीन सदा जल में रहती है। अयस्क धोकर साफ करनेवाले को मीन {मिंज} कहते थे-दोनों का अर्थ मछली है ।
{१०} कण्डूलना- पत्थर से सोना खोदकर निकालने वाले कण्डूलना हैं । उससे धातु निकालने वाले ओराम हैं ।
{११} हेम्ब्रम- संस्कृत में हेम का अर्थ है सोना, विशेषकर उससे बने गहने । हिम के विशेषण रूप में हेम या हैम का अर्थ बर्फ़ भी है । हेमसार तूतिया है। किसी भी सुनहरे रंग की चीज को हेम या हैम कहते हैं । सिन्दूर भी हैम है, इसकी मूल धातु को ग्रीक में हाईग्रेरिअम कहते हैं जो सम्भवतः हेम्ब्रम का मूल है ।
{१२} एक्का या कच्छप-दोनों का अर्थ कछुआ है । वैसे तो पूरे खनिज क्षेत्र का ही आकार कछुए जैसा है, जिसके कारण समुद्र मन्थन का आधार कूर्म कहा गया । पर खानके भीतर गुफा को बचाने के लिये ऊपर आधार दिया जाता है, नहीं तो मिट्टी गिरनेसे वह बन्द हो जायेगा । खान, गुफा की दीवाल तथा छत बनाने वाले एक्का या कच्छप हैं ।
कार्त्तिकेय का समय महाभारत, वन पर्व {२३०/८-१०} में दिया है कि, उत्तरी ध्रुव अभिजित् से दूर हट गया था तथा धनिष्ठा नक्षत्र से वर्षा होती थी जब वर्ष का आरम्भ हुआ । यह प्रायः १५,८०० ई.पू. का काल है । इसके १५,५०० वर्ष बाद सिकन्दर के आक्रमण के समय मेगास्थनीज ने लिखा है कि भारत खाद्य तथा अन्य सभी चीजों में स्वावलम्बी है, अतः इसने पिछले १५००० वर्षों में किसी देश पर आक्रमण नहीं किया है । महाभारत, वन पर्व (२३०/८-१०)-
अभिजित् स्पर्धमाना तु रोहिण्या अनुजा स्वसा । इच्छन्ती ज्येष्ठतां देवी तपस्तप्तुं वनं गता ।।८।।
तत्र मूढोऽस्मि भद्रं ते नक्षत्रं गगनाच्युतम् । कालं त्विमं परं स्कन्द ब्रह्मणा सह चिन्तय ।।९।।
धनिष्ठादिस्तदा कालो ब्रह्मणा परिकल्पितः । रोहिणी ह्यभवत् पूर्वमेवं संख्या समाभवत् ।।१०।।
५. कुम्भ पर्व- बलि युग के समुद्र मन्थन में अमृत कलश या कुम्भ निकला था, जिसकी बून्दें जहां जहां पड़ीं, वहां कुम्भ मनाते हैं। आजकल ४ स्थानों पर कुम्भ होते हैं- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक । इनका १२ वर्ष का चक्र है जो बृहस्पति का परिक्रमा काल है । हर ४ वर्ष पर किसी स्थान पर कुम्भ होता है । पर रुद्रयामल के आधार पर करपात्री जी ने लिखा है कि पहले १२ स्थानों पर हर वर्ष कुम्भ होते थे ।।
{कुम्भपर्व निर्णय ग्रन्थ के पृष्ठ २२ पर} –
देवश्चागत्य मज्जन्ति तत्र मासं वसन्ति च । तस्मिन् स्नानेन दानेन पुण्यमक्षय्यमाप्नुयात् ।।
सिंहे युतौ च रेवायां मिथुने पुरुषोत्तमे । मीनभे ब्रह्मपुत्रे च तव क्षेत्रे वरानने ।।
धनुराशिस्थिते भानौ गङ्गासागरसङ्गमे। कुम्भराशौ तु कावेर्य्यां तुलार्के शाल्मलीवने ।।
वृश्चिके ब्रह्मसरसि कर्कटे कृष्णशासने । कन्यायां दक्षिणे सिन्धौ यत्राहं रामपूजितः ।।
अथाप्यन्योऽपि योगोऽस्ति यत्र स्नानं सुधोपमम् । मेषे गुरौ तथा देवि मकरस्थे दिवाकरे ।।
त्रिवेण्यां जायते योगः सद्योऽमृतफलं लभेत् । क्षिप्रायां मेषगे सूर्ये सिंहस्थे च बृहस्पतौ ।।
मासं यावन्नरः स्थित्वाऽमृतत्वं यान्ति दुर्लभम् —
{रुद्रयामल, तृतीय करण प्रयोग, १२२-१२८}
अर्थात्-१. सूर्य-चन्द्र-गुरु सिंह राशि में युत होने से नासिक {महाराष्ट्र} में,
२. मिथुन राशि में जगन्नाथपुरी {ओड़िशा} में,
३. मीन राशि में कामाख्या {असम} में,
४. धनु राशि में गङासागर {बंगाल} में,
५. कुम्भराशि में कुम्भकोणम् {तमिलनाडु} में,
६. तुला राशि में शाल्मली वन अर्थात् सिमरिया धाम {बिहार} में,
७. वृश्चिक राशि में कुरुक्षेत्र {हरियाणा} में,
८. कर्क राशि में द्वारका {गुजरात} में,
९. कन्या राशि में रामेश्वरम् {तमिलनाडु} में,
१०. मेषाऽर्क-कुम्भ राशि गत गुरु में हरिद्वार {उत्तराखण्ड} में,
११. मकराऽर्क मेष राशि गत गुरु में प्रयाग {उत्तर प्रदेश} में,
१२. मेषाऽर्क सिंहस्थ गुरु में उज्जैन {मध्य प्रदेश} में महाकुम्भ होता है ।।
टिप्पणी–
१. कुरुक्षेत्र में महाभारत कार्तिक अमावास्या
{अमान्त मास, उसके बाद मार्गशीर्ष का आरम्भ}
को आरम्भ हुआ जिस समय सूर्य वृश्चिक राशि में थे । चन्द्र का प्रायः उसी समय वृश्चिक राशि में प्रवेश होता है । दक्षिणी गणना से शुभकृत सम्वत्सर था । इसमें गुरु वृश्चिक राशि में नहीं था ।
२. रामेश्वरम् में भगवान् राम ने फाल्गुन मास में शिव की पूजा की थी । उस समय गुरु कन्या राशि में थे । राम जन्म के समय् गुरु कर्क राशि में थे । ३६ वर्ष बाद पुनः कर्क राशि में; ३९ वर्ष बाद राज्याभिषेक
{२५ वर्ष में वनवास, १४ वर्ष तक} के समय तुला में प्रवेश किये। उससे पूर्व कन्या राशि में थे ।।
३. कुम्भ का सामान्य अर्थ जल का पात्र है । कुम्भ जैसा प्रयोग होने वाला कुम्भड़ा है {कूष्माण्ड का अपभ्रंश}।
जल के क्षेत्र भी कुम्भ स्थान हैं
कावेरी नदी का डेल्टा भी कुम्भ है । उसका कोण कुम्भकोणम् है । यह अगस्त्य का जन्म स्थान था । इसी कुम्भ से उनका जन्म हुआ, मिट्टी के बर्तन से नहीं। आकाश में क्षितिज के ऊपर का दृश्य भाग कुम्भ है ।
{वेद में चमस भी कहा है}
उत्तर से दक्षिण की रेखा उसे २ भाग में विभाजित करती है ।
उत्तरी विन्दु वसिष्ठ तथा दक्षिणी विन्दु अगस्त्य है ।
एक अगस्त्य तारा भी है, जिसके दक्षिणी अक्षांश पर अगस्त्य द्वीप था । यह करगुइली द्वीप कहलाता है जो अभी फ्रांस के अधिकार में है । आकाश के कुम्भ का पूर्व भाग या पूर्व कपाल मित्र तथा पश्चिम कपाल वरुण है ।।
४. पुरी में जब भी रथ यात्रा होती है, सूर्य और चन्द्र मिथुन राशि में ही होते हैं ।
{आषाढ़ शुक्ल द्वितीया}
रथयात्रा या दशमी को विपरीत रथ यात्रा, इन दोनों में कम से कम एक के समय सूर्य पुनर्वसु नक्षत्र में होता है । अदिति के समय इसी नक्षत्र में पुराना वर्ष समाप्त होकर नया वर्ष शुरु होता था । अतः शान्ति पाठ में कहते हैं- अदितिर्जातं अदितिर्जनित्वम् ।
१७,५०० ई.पू. में पुनर्वसु में विषुव संक्रान्ति होती थी । अतः अदिति को पुनर्वसु का देवता कहा गया है । गुरु मिथुन राशि में १२ वर्ष के बाद ही आ सकता है । पर उसके अनुसार नव-कलेवर नहीं होता । यह प्रायः १९ वर्ष बाद होता है, जब अधिक आषाढ़ मास हो ।
५. शाल्मली वन- सिमरिया घाट के अतिरिक्त अन्य भी हो सकते हैं । यह गङ्गा और कोशी के संगम पर था । प्राचीन काशी राज्य में भी गङ्गा-शोण सङ्गम के पास सेमरा गांव है । यह काशी क्षेत्र का कुम्भ क्षेत्र हो सकता है ।।
८. आन्तरिक समुद्र मन्थन-
मनुष्य शरीर में मस्तिष्क ही समुद्र है, और मन उसको मथता रहता है । जीवित रहने पर मन सदा चलता रहता है ।
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथी बलवद् दृढम् । {गीता, ६/३४}
पर उसको नियमित अभ्यास से उपयोगी काम में लगाया जा सकता है । ध्यान के अभ्यास के लिये शरीर को दृढ़ रखा जाता है ।
इसके लिये कूर्म नाड़ी पर संयम किया जाता है-
कूर्मनाड्यां स्थैर्यम् ।
{पातञ्जल योगसूत्र ३/३१}
एक मत के अनुसार यह कण्ठ कूप के ठीक नीचे, जिसके बारे में इसके पूर्व के योग सूत्र में कहा है । अन्य मत से यह मेरुदण्ड में है ।।
मेरुदण्ड ही वास्तविक मथानी है जिसके केन्द्रों पर ध्यान केन्द्रित कर क्रमशः ऊपर उठते हैं ।। मस्तिष्क के ऊपर सहस्रार में पहुंचने पर उसके पीछे के विन्दु चक्र से अमृत मिलता है ।।
पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले ।
उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते ।। {कुलार्णव तन्त्र, ७/१००}
अर्थात् — मूलाधार के पृथ्वी तत्त्व से ऊपर सहस्रार में बार बार अमृत पान कर भूमि {मूलाधार} मे आने से पुनर्जन्म नहीं होता ।
भक्ति मार्ग में मध्य के वामन अर्थात् हृदयस्थ आत्मा का दर्शन करने से पुनर्जन्म नहीं होता ।।
कठोपनिषद्, अध्याय २, वल्ली २-
हंसः शुचिषद् वसुरन्तरिक्षसद्, होता वेदिषद् अतिथिर्दुरोणसत् ।
नृषद् वरसदृतसद् व्योमसदब्जा, गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ।।
।।२।।
ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति। मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते ।।
।।३।।
{श्लोक २-महानारायण उपनिषद् ८/६, १२/३, नृसिंह पूर्वतापिनी उप. ३/६, ऋक्, ४/४०/५}
भौतिक रूप में यही रथ यात्रा के समय उसमें वामन रूप जगन्नाथ का दर्शन करना है ।।
दोलायमानं गोविन्दं मञ्चस्थं मधुसूदनम् । रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।
{स्कन्द पुराण, वैष्णव खण्ड, उत्कल खण्ड} यह श्लोक पुराने कोषों वाचस्पत्यम् तथा शब्द कल्पद्रुम में उद्धृत है । पर वर्तमान मुद्रित स्कन्द पुराण में नहीं मिलता ।।
हरिकृपा । मंगल कामना ।।
संकलन —
ज्योतिर्विद् पं. कमलेश कटारे जी
संपादन व प्रेषण—
पं. बलराम शरण शुक्ल
नवोदय नगर हरिद्वार ।।