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लघुकथा – मन ही मंदिर

पुराने समय की बात है, एक गाँव के किनारे, एक कच्चे रास्ते के पास पंडित हरिनारायण जी का छोटा-सा घर था। साधारण जीवन, सादा भोजन और भक्ति की दिनचर्या ही उनका संसार था। वे हमेशा मानते थे कि मन ही मंदिर है, लेकिन मंदिर में जाकर आराधना करना उनके जीवन का अनिवार्य हिस्सा था। हर सुबह वे सफ़ेद धोती-कुर्ता पहनते, ताज़ा फूलों की माला और पूजा की थाली सजाते और शिवालय के दर्शन के लिए निकल पड़ते।

एक दिन की बात है, सुबह से ही मौसम बिगड़ गया था। काले बादलों ने आसमान ढक लिया और थोड़ी देर बाद मूसलधार बारिश शुरू हो गई। बादलों की गड़गड़ाहट और सड़कों पर फैला कीचड़, मंदिर तक पहुँचने का रास्ता कठिन बना रहा था। फिर भी पंडित जी ने थाली उठाई और दरवाज़ा खोलने ही वाले थे कि अचानक बाहर से धीमी-सी आवाज़ आई।

उन्होंने दरवाज़ा खोला। सामने एक बूढ़ी औरत खड़ी थी, उसके कपड़े पूरी तरह भीगे थे, हाथ में पुराना टूटा-फूटा छाता थी। चेहरे पर थकान व भूख की झलक और आँखों में मदद की पुकार साफ दिख रही थी।

वह काँपते स्वर में बोली—
“बेटा… दो दिन से कुछ खाया नहीं… मंदिर जा रहे हो तो मेरे लिए भी प्रसाद ले आना।”

पंडित जी कुछ क्षण के लिए ठिठक गए। मन का एक कोना बोला—
“पहले पूजा कर आओ, फिर इसकी मदद करना”।

लेकिन तभी भीतर से एक और आवाज़ गूँजी— “क्या शिव मंदिर में ही हैं? या इस बूढ़ी औरत की भूख में भी उनका वास है? याद रखो, मन ही मंदिर है और सच्ची पूजा वही है जो किसी की पीड़ा मिटा दे।”

पंडित जी ने बिना एक शब्द कहे उसे भीतर बुलाया। भीगे कपड़े बदलने के लिए दिए, चूल्हा जलाकर गरम खिचड़ी बनाई, चाय रखी और आराम से बैठने को कहा। बूढ़ी औरत के काँपते हाथ जैसे थाली पकड़ते ही स्थिर हो गए।

एक-एक कौर खाते समय उसकी आँखों में आभार के आँसू थे और पंडित जी के मन में गहरी शांति थी। उस पल उन्हें लगा कि सच में मन ही मंदिर है और ईश्वर तभी प्रकट होते हैं, जब दिल में करुणा, दया और प्रेम की ज्योति जलती है।

रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे पंडित जी सोचते रहे—
“मंदिर पत्थर का हो सकता है, मूर्ति सोने की हो सकती है… पर अगर मन करुणा से खाली है तो वह मंदिर भी सूना है। असली मंदिर वह है जिसमें इंसानियत के दीप जलते हैं।”

फिर मन के भीतर एक स्वर गूँजा— “मन ही मंदिर है और सच्चा भगवान वहीं प्रकट होते हैं, जहाँ प्रेम और दया का वास होता है।”

न हि मृण्मये न रजते, न हि रत्नमये गृहे।
करुणा दया यत्रास्ति, तत्रैव देवालयः सदा॥
भावार्थ: ईश्वर न मिट्टी, न पत्थर, न रत्नजटित भवन में बसते हैं। जहाँ करुणा और दया का निवास है, वही सदा-सर्वदा उनका सच्चा देवालय है।

मनो हि मन्दिरं नित्यं, शुद्धभावसमन्वितम्।
यत्र प्रेमदया दीपाः, तत्र देवो निवास्यति॥
भावार्थ: मन ही सच्चा मंदिर है, यदि वह शुद्ध भावों से भरा हो। जहाँ प्रेम और दया के दीप जलते हैं, वहीं ईश्वर अपना निवास करते हैं।

योगेश गहतोड़ी

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