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भावपल्लवन

सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः।
सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम्।।
(बाल्मीकि रामायण, अयोध्याकांड १०९:१३)

बाल्मीकि रामायण के अयोध्याकांड (१०९:१३) में प्रस्तुत श्लोक “सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः। सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम्।।” सनातन दर्शन में सत्य के उच्चतम रूप, यानि सत्पंचक के प्रथम आयाम पूर्णसत् का प्रतिनिधित्व करता है। पूर्णसत् वह अवस्था है जिसमें सत्य शुद्ध, अचल और निःसंदेह होता है। यह न केवल व्यक्ति के जीवन में नैतिक और आध्यात्मिक आधार प्रदान करता है, बल्कि समस्त सृष्टि के संचालन और उसके नियमों की नींव भी यही सत्य है। श्लोक में कहा गया है कि संसार में ईश्वर स्वयं सत्य है, और धर्म भी सत्य में ही आश्रित है। इसका अर्थ यह है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र—कर्म, व्यवहार, दृष्टिकोण और संवेदनाओं में सत्य की उपस्थिति और पालन सर्वोच्च प्राथमिकता रखता है। जब व्यक्ति इस पूर्णसत् के अनुरूप जीवन जीता है, तब उसके कर्म धर्मसंगत, समाजोपयोगी और आध्यात्मिक दृष्टि से फलदायी बनते हैं।

पूर्णसत् का यह रूप केवल बाहरी आचरण या नियमों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आंतरिक चेतना और आत्मा के स्थायी स्वरूप में भी प्रत्यक्ष होता है। श्लोक यह स्पष्ट करता है कि सभी चीज़ों की जड़ सत्य है और सत्य के बिना कोई सर्वोच्च लक्ष्य, मोक्ष म प्राप्त नहीं किया जा सकता। सरल शब्दों में कहा जाए तो, पूर्णसत् वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति सत्य के माध्यम से ईश्वर के निकट पहुँचता है और जीवन में स्थायी शांति, संतोष तथा उच्चतम सिद्धि प्राप्त करता है। यह श्लोक हमें यह स्मरण कराता है कि सत्य में अडिग रहना ही वास्तविक परमपद तक पहुँचने का मार्ग है।

शब्दार्थ:
सत्यम् – सत्य, वास्तविकता, जो शुद्ध और स्थायी है

एव – मात्र, ही, निश्चित रूप से

ईश्वरो – ईश्वर, सर्वोच्च सत्ता, जगत का नियंत्रक

लोके – संसार में, इस जगत में

सत्ये – सत्य में, वास्तविकता में

धर्मः – धर्म, नैतिक और आध्यात्मिक नियम, कर्तव्य

सदा-अश्रितः – सदैव आधारित, हमेशा स्थिर या भरोसेमंद

सत्यमूलानि – सत्य से उत्पन्न मूल तत्व, आधारभूत कारण

सर्वाणि – सभी वस्तुएँ, सभी कर्म और सभी मूल्य

सत्या – सत्य, वास्तविकता

नास्ति – नहीं है, अभाव है

परम् पदम् – सर्वोच्च स्थान, परम लक्ष्य, परमधाम

भावार्थ: इस श्लोक का मूल संदेश है कि इस संसार में केवल सत्य ही ईश्वर है और धर्म सत्य में ही आधारित है। सभी चीज़ों का मूल सत्य है और सत्य के बिना कोई भी सर्वोच्च स्थान या परम लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता।

“सत्यमेवेश्वरो लोके” में यह भाव प्रकट होता है कि सत्य केवल एक नैतिक नियम नहीं, बल्कि ईश्वर का स्वरूप है। जगत में जिस भी सत्ता का आधार है, वह सत्य से ही प्रकट होती है। ईश्वर और सत्य के बीच कोई पृथक् दूरी नहीं है; सत्य के माध्यम से ही ईश्वर का अस्तित्व और क्रियाशीलता समझी जा सकती है।

श्लोक के “सत्ये धर्मः सदाश्रितः” भाग से यह स्पष्ट होता है कि धर्म का निवास सत्य में ही है। धर्म का पालन केवल नियमों के पालन से नहीं होता, बल्कि सत्य के निरंतर अनुसरण से धर्म का सही रूप प्रकट होता है। जब व्यक्ति सत्य का आश्रय लेता है, तभी उसके कर्म धर्मसंगत और जीवन सार्थक बनते हैं।

“सत्यमूलानि सर्वाणि” यह दर्शाता है कि सत्य सभी चीजों की जड़ है। यह केवल मनुष्य या समाज तक सीमित नहीं है, बल्कि समस्त सृष्टि और जीवन के हर क्षेत्र में सत्य का मूल उपस्थित है। पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, और जीव-जंतु — सब कुछ सत्य पर आधारित है। यही कारण है कि सत्य का पालन केवल नैतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और सार्वभौमिक कर्तव्य भी है।

श्लोक में कहा गया है “सत्यान्नास्ति परं पदम्”, अर्थात् सत्य के बिना कोई सर्वोच्च स्थिति या परम लक्ष्य, मोक्ष, या आत्मसाक्षात्कार प्राप्त नहीं हो सकता। सत्य ही वह मार्ग है जो जीवन को उच्चतम आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर ले जाता है। सत्य के बिना व्यक्ति केवल भ्रम और क्षणिक सुखों में उलझता है।

सत्य का पालन केवल मौखिक सत्य बोलने तक सीमित नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र—कर्म, व्यवहार, दृष्टिकोण और संवेदनाओं—में होना चाहिए, क्योंकि जब व्यक्ति अपने आचरण को सत्य के अनुरूप रखता है तो उसके कर्म धर्मसंगत और समाजोपयोगी बनते हैं।

बाल्मीकि रामायण के अयोध्याकांड का यह श्लोक इसी सत्य और धर्म के परम महत्व को रेखांकित करता है, जहाँ ईश्वर स्वयं सत्य स्वरूप हैं और धर्म का आधार भी सत्य में निहित है। समस्त सृष्टि का मूल सत्य है, जिसके बिना न मोक्ष संभव है और न आत्मसाक्षात्कार। धर्म का सार नियमों के पालन मात्र में नहीं, बल्कि सत्य के सतत और पूर्ण अनुसरण में निहित है, जो मनुष्य को स्थायी सफलता, आंतरिक शांति, आत्मिक संतोष और अंततः परमपद की प्राप्ति कराता है।

इस श्लोक का भाव संक्षेप में इस प्रकार है —
सत्यं ह्येवेश्वरस्वरूपं धर्मो यस्मिन्स्थितः सदा।
सत्येनैव स्थितं विश्वं सत्येनैव परं पदम्॥
पूर्णसत्यपथे याति यो नरः मोक्षमश्नुते।
सत्यदीपप्रकाशेन नश्यत्यज्ञानकाञ्चनम्॥

अर्थात् सत्य ही ईश्वर का वास्तविक स्वरूप है और धर्म सदा उसी में स्थित रहता है। सम्पूर्ण विश्व सत्य के आधार पर स्थापित है और सत्य से ही परम धाम (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य पूर्ण सत्य के मार्ग पर चलता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है और सत्य के दीपक के प्रकाश से अज्ञान का अंधकार समाप्त हो जाता है।

योगेश गहतोड़ी

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