
कृष्ण को न बुलाइए, स्व कृष्ण हो जाइए,
नक्षत्र सभी अनुकूल है,बस ध्यान तो लगाइए।।
करना क्या मंथन है,या संघर्ष रत बंधन है,
जो भी लग रहा है जो,उसमे ही मन रमाइए।।
सीख ले उस जीव से,निर्जीव जो है संजीव मे,
पुकारना अंतस मे है ,अन्तर्मन जगाइए।।
हां होना जरा कठिन सा है,कैद मन कर्मन का है,
कर्मो की इस पोटली की बस,तह खोलते जाइए।।
इक लंबी फेहरिस्त है,प्रारब्ध की जो किश्त है,
ब्याज लग चुका बहुत, अब मूल पर न जाइए।।
मैं ही क्यूं का प्रश्न है,मैं क्यूं नही,बनाइए, कृष्ण की बांट छोड़कर, कृष्ण स्व ही हो जाइए।।
इक लंबा संघर्ष है,और हाथ न निष्कर्ष है,ऐसे मे सोच भविष्यत को वर्तमान न ठुकराइए।।
ठाकुर बड़ा वेगवान है,जो अंतस की पहचान है,
सुनना सिर्फ उसी को है,उसको न बस बिसराइए।।
मालुम है कि यशोदा है कौन,और कौन नंदलाल है,
कौन है देवकी वासुदेव,कौन कृष्ण भगवान है,।।
कौन है मामा यह कंस,और कौन उसके मान है,
बताऊँगा विस्तार से,जो मान रहे,भगवान है।।
हाँ विशेष इक बात है,संदेश सरस साथ है,
जो हाथ अपने है नही,वही देव साक्षात है।।
पकड़ना बस कुछ नही,न कुछ ही है कि छोड़ना,
जब है ही सब शून्य सा,फिर क्या घटा क्या जोड़ना।।
खेल तो बस रही नियति,है,और,इसी को है कि खेलना
चाल,समझ विवेक को,अंतस को है टटोलना।।
कह रहे होगे चालाक है,सरल बड़ा बदमाश है,
बताता कुछ भी खास नही,उत्तर को बस सवाल है।।
तो इंतजार कीजिए, मजा समय का लीजिए, गुजर जाता हर वक्त है,प्रतीक्षा जरा कीजिए।।
हल सभी वे तैयार है,जो पूछ रहे सवाल है,
पर पढ़ेगा फिर आगे कौन, तो इसी का कुछ मलाल है।।
आऊंगा जल्द लौटकर, प्रश्न अधूरे फिर छोड़कर,
कुछ जवाब देता जाऊँगा, नए सवाल छोड़ जाऊँगा।।
बस आज का जो काज है, ये मन जो सब नासाज है,
इसी को कुछ समझाइए, ढूँढना,कृष्ण नही,कृष्ण होना है मनाइए।।
संदीप शर्मा सरल