
यहाँ इंसानियत रोज़ मरती है,
और आदमी भी…
पर असली सवाल यह है
क्या कभी आदमी, इंसान भी मरता है?
या फिर वह तो पहले ही मर चुका होता है?
यहाँ इंसानियत का खून होता है रोज़,
और हत्यारे ही मोमबत्तियाँ लेकर निकल पड़ते हैं,
टीवी कैमरों पर आँसू बहाते हैं,
जैसे अपराधबोध भी अब ठेके पर मिलता हो।
जीते-जी जो सताते हैं, रुलाते हैं,
वही मरने पर फूल चढ़ाते हैं।
अरे! यहाँ तो लाशों से भी
राजनीति का व्यापार चमकाया जाता है।
आर एस लॉस्टम