
प्रिय बंधुगण मित्रगण एवं बहनें !!
पातञ्जल ऋषि द्वारा प्रणीत, पातञ्जल योगसूत्र यथाप्रयास एकलेख प्रतिदिन आपको प्राप्त होगा ।
इस लेखको आप स्वयं पढ़ें, अपने परिवारको भी सरल शब्दों में पढ़कर सुनायें, और अपने मित्रों-परिचितों को भी भेजें ।
प्रतिदिन लगभग 1100 से अधिक परिजन तक यह लेख पहुँचता है—
आपभी अपने प्रभाव क्षेत्र में अपने परिचित बन्धुओं को यह लेख अवश्य भेजें, इस लेख को बराबर पढ़ने वाला स्वस्थ भी रहेंगे और उन्नति भी करेंगे यह निश्चित है ।।
इसमें कोई पूजा पाठ नहीं करना है केवल इसे पढ़ना है और अपने जीवन को इस तरह से ढाल लेना है ।।
!! श्री राम जय राम जय जय राम !!
योग की मान्यता अनुसार—
प्रकृति तथा पुरुष चेतन आत्मा दो भिन्न तत्व हैं जो अनादि हैं इन दोनों के संयोग से ही इस समस्त जड़ चेतनमें श्रृष्टिका निर्माण हुआ है ।
प्रकृति जड़ है जो— सत्व, रज तथा तम तीनों गुणों से युक्त है । इसके साथ जब चेतना {पुरुष} का संयोग होता है तब उसमें हलचल होती है तथा श्रृष्टिनिर्माण की प्रक्रिया आरंभ होती है यह प्रकृति ‘दृश्य’ है तथा ‘पुरुषद्रष्टा’ है ।
इस सृष्टिमें सर्वत्र प्रकृति ही दिखाई देती है, पुरुष कहीं दिखाई नहीं देता किंतु प्रकृति का यह संपूर्ण कार्य उस पुरुष तत्व की प्रधानता से ही हो रहा है । ये दोनों इसप्रकार संयुक्त हो गए हैं कि इन्हें अलग-अलग पहचानना कठिन है इसका करण अविद्या है पुरुष सर्वग्य है तथा प्रकृति के हर कणमें व्याप्त होने से यह सर्वव्यापी भी है । जीवभी इन दोनों के ही संयोग का परिणाम है । उस पुरुषको शरीरमें आत्मा तथा श्रृष्टिमें विश्वात्मा कहा जाता है ।।
स्रोत– पतंजलि योग सूत्र
लेख– पं. बलराम शरण शुक्ल
नवोदय नगर हरिद्वार