
वास्तव में सरकार न तो किसी व्यक्ति विशेष की होती है और ना ही किसी राजनैतिक दल की होती है। सरकार एक संस्थागत व्यवस्था है जो देश के संविधान, नियमों और कानूनों के अनुसार कार्य करती है। यह जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से संचालित होती है, जो किसी राजनैतिक दल या गठबंधन का हिस्सा हो सकते हैं। लेकिन सरकार का मूल उद्देश्य जनता के कल्याण और देश के प्रशासन को सुनिश्चित करना होता है, न कि किसी व्यक्ति विशेष या अपने पाले के सहयोगी दल/गठबंधन के हितों को प्राथमिकता देना है।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होती है और संविधान, विभिन्न नियम व कानून के दायरे में काम करती है। राजनैतिक दल या चुने हुए व्यक्ति/प्रतिनिधि केवल सरकार का नेतृत्व या संचालन करते हैं। सरकार स्वयं एक स्वतंत्र इकाई है जो कानून और लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित होती है। यदि सरकार किसी व्यक्ति विशेष के नाम या दल के नाम पर चलने लगे, तो वह सरकार, सरकार नहीं रह जाती, बल्कि मनमानी और तानाशाही की शुरुआत हो जाती है। इस बात को देश की जनता को समझना चाहिए और ऐसी विचारधारा रखने वाले सत्ताधारी दल को अगले चुनाव में पूर्णतः नकार देना चाहिए।
यह विचारधारा लोकतंत्र की मूल भावना पर आधारित है। लोकतंत्र में सरकार किसी खास व्यक्ति विशेष या दल का निजी संपत्ति/संसाधन नहीं है की जो मन में आए बहुमत के आधार पर अनैतिक हरकत करता रहे बल्कि यह एक सामूहिक जिम्मेदारी है जो जनता की इच्छा से बनती है और जनता के हितों लिए काम करती है। भारत का संविधान इसकी स्पष्ट व्याख्या करता है। अनुच्छेद 74 से 78 तक कार्यपालिका की शक्तियों का वर्णन है, जहां राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को जनता के चुने हुए प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है, लेकिन वे संविधान, न्यायपालिका के अधीन हैं। यदि सरकार किसी व्यक्ति विशेष, जैसे किसी करिश्माई नेता के नाम पर चलने लगे, तो यह व्यक्तिवाद की ओर बढ़ता है, जो तानाशाही का रूप ले सकता है, जैसे कि रूस और चीन में देखने को मिल रहा है।
अब तक हमलोग यही देखते आए हैं कि सरकार चलाने के लिए कोई भी दल चुन के आया हो परंतु सरकारी, सार्वजनिक काम-काज के दस्तावेज पर उस देश का नाम अर्थात भारत है तो भारत सरकार लिखा रहता है, न कि उस दल का नाम लिखकर सरकार लिखा होता है। प्रधान मंत्री, मुख्यमंत्री, या किसी विभागीय मंत्री के पद नाम के नीचे भारत सरकार या राज्य के नाम लिख कर विभाग के मंत्री लिखा जाता है। जैसे की ग्रामीण विकास मंत्री भारत सरकार या परिवहन मंत्री बिहार सरकार आदि आदि। परंतु हाल के कुछ वर्षों में यह देखा जा रहा कि किसी राज्य के सरकार हो या केंद्र के सरकार बड़े गर्व से लिख रहे हैं फलाने व्यक्ति की सरकार… फलाने दल की सरकार…फलाने की गारंटी आदि आदि सरकारी दस्तावेजों पर भी अब देखने को मिलने लगा है। जबकि पहले भारत या राज्यों के नाम लिख कर सरकार लिखा होता था।
दरअसल सरकारी शासन सत्ता में काबिज दल के नाम लेकर या प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री का नाम लेकर आम जनमानस सरल भाषा में समझने लिए मात्र बोलचाल में उपयोग करते थे न कि यह कोई अधिकारिक शब्द है या होना चाहिए। जब यह शब्द को सत्ताधारी दल सुने तो वह समझने लगे कि सरकार अभी हम चला रहे हैं तो सरकार मेरी ही है। दिखावे के लिए भले ही जो हो पर यह सच्चाई है कि प्रत्येक राजनैतिक दल किसी इक्का दुक्का व्यक्ति के ही विचारधारा से चलती है और जब वह व्यक्ति मुख्य मंत्री या प्रधान मंत्री की पदवी हासिल कर लेता है तो वह दल के नाम नहीं बल्कि अपने नाम की सरकार बताता है और अपने दल के अन्य कार्यकर्ताओं से कहलवाता भी है तथा वह अपनी नाम के गारंटी भी देने लगता है। जनता भी महान है वह इस गारंटी को उपकार समझने लगती है और चुनाव पर चुनाव उस पार्टी को जिताने लगती है। यह गारंटी कितना जुमला में बदल जाती है वह जनता के अनुभव ही बता सकती है। वस्तुतः सरकार के मुख्य संचालक के प्रतिनिधि गारंटी देकर वह कोई उपकार या एहसान जनता पर नहीं कर रहा बल्कि सरकार में प्रमुख, प्रधान पद पर बैठे व्यक्ति का उत्तरदायित्व और कर्तव्य है, गारंटी नहीं..! क्योंकि जनता अपनी अपेक्षाओं और समाज की आवश्यक जरूरतों के पूर्ति के लिए ही किसी दल के हाथ में शासन सत्ता कि बागडोर सौंपती है। यह मूर्खता और दुर्बल मानसिकता है कि ऐसे प्रमुख पदों पर बैठे व्यक्ति अपने आप को दाता, जनता पर उपकार, एहसान करने वाला समझ बैठता है जिसने उसे चुन कर भेजा है। वास्तव में यह एक अहंकार, अज्ञानता की उच्चतम पराकाष्ठा है और कुछ नहीं..!
इतिहास गवाह है कि हिटलर, मुसोलिनी या स्टालिन जैसे नेता इसी तरह लोकतंत्र को व्यक्तिगत महत्वकांक्षा के अनुसार सत्ता चलाकर देशों को बर्बाद कर चुके हैं।
भारत में, वर्ष1950 से संविधान लागू होने के बाद, सरकारें आति-जाती बदलती रहीं, लेकिन राष्ट्र हित की महत्वपूर्ण संस्थाएं मजबूत रहीं। जवाहरलाल नेहरू से लेकर वर्तमान नेतृत्व तक, नेता आए-गए, लेकिन सरकार की संस्थागत प्रकृति बनी रही। हालांकि, हाल के वर्षों में, कुछ चिंताएं उभरी हैं जहां सत्ता का केंद्रीकरण खास व्यक्ति या दल के रूप में दिखता है। उदाहरणस्वरूप, यदि कोई दल अपने हितों को प्राथमिकता दे, जैसे विपक्षी नेताओं पर जांच एजेंसियों का दुरुपयोग करें और अपने दल के भ्रष्टाचारी नेता उससे अछूता रहे अथवा बेखबर रहे, तो यह लोकतंत्र की जड़ें कमजोर करता हुआ दिखता है। अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट्स में भारत की न्यायिक स्वतंत्रता में गिरावट दर्ज की गई है, जहां 2014 से 2025 तक अदालतें अक्सर सरकार के पक्ष में फैसले देती नजर आईं। यह दिखाता है कि संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और ईमानदारी कितनी महत्वपूर्ण है।
सत्ताधारी दलों का भूमिका नेतृत्व प्रदान करना है, समाज का समेकित विकास करना है न कि जांच एजेंसियां कानूनी संस्थाओं, अदालतों को अपने अधीन करना है तथा अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के इनके जाल में फंसा के झूठे मुकदमे कराना है। यह संस्थाएं स्वतंत्र है, पक्ष विपक्ष के जो भी भ्रष्टाचारी नेता है उन पर सामान रूप से कार्यवाही करना इनका कर्तव्य है। इन्हें अपने अनुसार से कार्य करने देना चाहिए न कि इन पर शासन सत्ता के हनक से अपने मनमुताबिक कार्य कराना चाहिए। यदि कोई सत्ताधारी दल या प्रमुख नेता ऐसा करे तो यह एक गैर संवैधानिक रवैया है। यदि सत्ताधारी दल, सरकार को तथा सरकारी सार्वजनिक परिसंपत्तियों को अपनी जागीर समझे, तो जनकल्याण, मूल उद्देश्य पिछड़ जाता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे मुद्दे हाशिए पर चले जाते हैं, और सत्ता की लड़ाई, केंद्र तथा विभिन्न राज्यों में चुनावी जीत प्रमुख हो जाती है। जनता को समझना चाहिए कि चुनाव में वोट देते समय, वे व्यक्ति या दल नहीं, बल्कि संस्थागत मजबूती प्रदान करने वाले दल को वोट करें न कि जाती पाती धर्म संप्रदाय के झगड़े में उलझने वाले नेता को चुनना चाहिए।
सत्ताधारी दल यदि अपने ही दल के या अपने पसंद के किसी व्यक्ति को राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्य सभा, लोक सभा, विधान सभा, विधान परिषद् के अध्यक्ष व मनोनीत सदस्य, चुनाव आयोग के अध्यक्ष, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रखने लगे, तब यह समझ लेना चाहिए कि उस देश में लोकतंत्र मात्र नाम का रह गया है और उस देश पतन के कगार पर है व अनैतिक, आतातायी शक्तियों के खिलौना बनने वाली है।
फिर एक दिन वह दिन भी आएगा जब किसी के संभालने से नहीं संभलेगा, जो आज हालत है पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया, इराक और फिलिस्तीन, उत्तर कोरिया आदि देशों का है..! अर्थात, किसी भी देश की कार्यपालिका जब उस देश की न्यायपालिका पर हावी हो जाएगी अथवा उससे मजबूत हो जाएगी, तो उस देश का पतन निश्चित है। ईश्वरीय विधान भी हमें यही सीख देती है कि अधर्म अन्याय पाप के सापेक्ष अंततः न्याय करने वाली दैविक शक्तियां ही सबसे बड़ी और अंतिम सत्य है।
पाकिस्तान को देख लीजिए वहां न्यायपालिका की कमजोरी से राजनीतिक अस्थिरता बनी रहती है, जहां सैन्य और राजनीतिक हस्तक्षेप ने लोकतंत्र को कमजोर कर दिया है। अफगानिस्तान में तालिबान शासन ने सरकारी ढांचा, संस्थाओं को खत्म कर दिया, जिससे देश अराजकता में डूब गया और तालिबान ने बल पूर्वक सरकार को अपने अधीन कर लिया। सीरिया और इराक में भी असद और सद्दाम जैसे नेताओं ने न्यायपालिका को अपने अधीन कर लिया था, जिससे गृहयुद्ध पनपा और फिर पतन हुआ। फिलिस्तीन में भी संस्थागत कमजोरी ने संघर्ष को बढ़ावा दिया। उत्तर कोरिया की सरकार भी एक ही व्यक्ति के नाम और इशारे पर कार्य करती है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि जब कार्यपालिका न्यायपालिका पर हावी होती है, तो लोकतंत्र समाप्त हो जाता है। यदि भारत में भी सरकार और सरकारी एजेंसियां नियमानुकूल, सर्व सम्मति के बजाए इक्का दुक्का व्यक्तियों के मर्जी, इशारे पर से चलती है तो भविष्य में यह खतरे की घंटी है। आगामी चुनाव में जनता को वोट सोच समझ कर करना होगा अन्यथा यह दिन न देखना पड़े कि वोट देने का अधिकार ही समाप्त हो जाए और उत्तर कोरिया जैसा किम जोंग की सरकार बहाल जाए..! सत्ताधारी दल के खिलाफ वाजिब आवाज बुलंद करने का मतलब जेल, मुकदमा, राष्ट्र द्रोह या फिर मृत्य दंड या ED सीबीआई से मुलाकात आदि आदि तमाम चुप कराने और भविष्य में कोई आवाज न उठा सके उसके लिए ये हथकंडे..!
भारत जैसे देश में संविधान, विभिन्न प्रकार के कानून और बनाए गए नियम के परिपालन, अधिकारों की सुरक्षा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, साधारण व्यक्ति से लेकर शासन सत्ता में शीर्ष पदों पर बैठे व्यक्तियों के अपराधों का दंड का निर्धारण जिला स्तर के न्यायालयों से लेकर देश स्तर के सर्वोच्च न्यायालय में होता आया है और यह अदालतें स्वतंत्र अपना स्वविवेक से फैसला देते आई हैं। जब इन अदालतों पर शासन सत्ताधारी दल का पकड़ मजबूत हो जाए अर्थात उनके पसंद के जज नियुक्त होने लगे तो फिर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उस देश का क्या हाल होगा न्याय व्यवस्था का और शासन सत्ता में बैठे लोग निर्भीक हो कर अपराध पर अपराध, भ्रष्टाचार पर भ्रष्टाचार करेंगे, क्योंकि होना कुछ भी नहीं है सब जगह न्यायालय में तो अपने ही लोग बैठे हैं। अपराध और वित्तीय अनियमितताएं जांच करने, सजा देने वाली जितनी संस्थाएं जैसे कि ईडी (एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट), सीबीआई (सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन), जिला अदालतें, उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय, चुनाव आयोग सब सरकार के मनमर्जी के अनुसार चल रही होंगी।
न्यायपालिका लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ है। भारत में, अनुच्छेद 124 के तहत सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है, लेकिन कॉलेजियम सिस्टम से सिफारिश की जाती है। यह प्रक्रिया 1993 के दूसरे जजेस केस से स्थापित हुई, ताकि कार्यपालिका का हस्तक्षेप कम हो। लेकिन हाल के वर्षों में, एनजेएसी (नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन) जैसे प्रयासों से विवाद हुआ, जहां सरकार जजों के नियुक्ति में अधिक भूमिका चाहती थी। 2025 की रिपोर्ट्स में, अंतरराष्ट्रीय कमीशन ऑफ जूरिस्ट्स (आईसीजे) ने भारत में न्यायिक स्वतंत्रता पर खतरा जताया है, जहां जजों पर दबाव और प्रो-गवर्नमेंट फैसले बढ़े हैं।
उदाहरणस्वरूप, 2025 में न्यायिक बैकलॉग 5 करोड़ से अधिक पहुंच गया, जो न्याय की पहुंच को बाधित करता है। राजनीतिक मामलों में, जैसे इलेक्टोरल बॉन्ड्स या सीएए, अदालतों पर आरोप लगे कि वे सरकार के पक्ष में हैं। यदि मुख्य न्यायाधीश या जज सत्ता के पसंदीदा हों, तो न्याय की निष्पक्षता प्रभावित होती है। आईसीजे की रिपोर्ट में कहा गया कि पिछले दशक (2014–2024) में न्यायिक स्वतंत्रता में गिरावट आई है, और जवाबदेही तंत्र कमजोर कमजोर हुआ है।
इसी तरह, निचली अदालतों में राजनीतिक हस्तक्षेप से भ्रष्टाचार बढ़ता है। जजों को सिफारिश, पैरवी या धमकियां मिलती हैं, खासकर राजनीतिक या गैंगस्टर मामलों में यह लोकतंत्र को कमजोर करता है, और इससे जनता का विश्वास टूटता है। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 ने न्याय व्यवस्था की क्षमता में कमी को उजागर किया है, जहां पुलिस, जेल और न्यायपालिका में संसाधनों की कमी है। सत्ताधारी दलों का पैरवी, दबाव भी एक कारण है।
चुनाव आयोग (ईसीआई) लोकतंत्र का संरक्षक है। अनुच्छेद 324 के तहत यह स्वतंत्र इकाई है, लेकिन 2020 के बाद निष्पक्षता पर कई सवाल उठे हैं। विपक्ष ने वोटर फ्रॉड और मतदाता सूची में गड़बड़ी के लगातार आरोप लगाए। कांग्रेस ने ईसीआई को पक्षपाती बताया, जहां राहुल गांधी के ‘वोट चोरी’ आरोप पर ईसीआई ने धमकी दी और कहा कि इन आरोपों के लिए शपथ पत्र दीजिए..!
2025 के बिहार SIR (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन) विवाद में, विरोधी दलों ने मतदाता सूची संशोधन को पक्षपाती बताया। ईसीआई ने इन आरोपों को खारिज तो किया, लेकिन पारदर्शिता की कमी चिंता का विषय बना हुआ है। X पर भी ईसीआई पूर्वाग्रह के आरोपों से भरा पड़ा है, जहां जनता और विपक्षी पार्टियां, नेताओं ने पक्षपात की शिकायत की है।
सीबीआई और ईडी राष्ट्रहित के एक स्वतंत्रत महत्वपूर्ण इकाई है। 2014 से 2025 तक में, 98% ईडी मामलों का विपक्षी नेताओं पर होना दुरुपयोग दर्शाता है। क्या सत्ता में बैठे सभी नेता दूध के धुले हैं..? यह भी एक चिंतन का विषय है। इन्हें ‘पिंजरे का तोता’ कहा गया, जहां विपक्ष ने दुरुपयोग के आरोप लगाएं हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए कि ये संस्थाएं स्वतंत्र निर्भीक और निष्पक्ष रहें, और राजनीतिक हथियार का शिकार न बने।
वी-डेम रिपोर्ट 2025 में भारत लोकतंत्र सूचकांक में गिरावट पर है, दुनिया के 10 सबसे खराब ऑटोक्रेटाइजरों में शामिल। लिबरल डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत 179 देशों की सूची में 100 वीं रैंक पर है। वहीं इलेक्टोरल डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत105वीं रैंक, इगलिटेरियन कंपोनेंट इंडेक्स में भारत134वीं रैंक — कुल मिलकर बहुत ही निम्न स्तर पर है। आखिर जनता के भारी भरकम टैक्स के रुपया से हो क्या रहा है, देश चहुंओर से सुरक्षित क्यों नहीं है, क्या विकास की गंगा केवल भाषणों में, अखबारों में, टीवी चैनलों पर बह रहा है या धरातल पर भी कुछ हो रहा है यह गंभीर चिंतनीय विषय है। यह संस्थागत कब्जे का संकेत है कि देश का हालत राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो कुछ भी हो जाए पर आज हम शासन सत्ता में है तो एक मौका है, देश की जो सरकारी, सार्वजनिक परिसंपत्तियां हैं उन्हें विकास और बदलाव के नाम पर मात्र इक्का दुक्का विश्वास पात्र कंपनियों के मालिक के हाथों निजीकरण कर दो अथवा बेच दो..! आखिर यह देश में हो क्या रहा..? आम वोटर जनता इतना बेखबर क्यों है..? इसके दूरगामी परिणाम कितना भयंकर होंगे किसी ने चिंतन किया है..? ईस्ट इंडिया कंपनी से 200 साल के भीषण संघर्ष के बावजूद तब जाकर कहीं आजादी मिली थी..! क्या देश के महत्वपूर्ण सरकारी सार्वजनिक संसाधन इन इक्का दुक्का कंपनियों के हाथ में चल जाएगा तो क्या आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक आजादी रहेगी यह प्रमुख विषय है..? क्या हम जाती पाती धर्म संप्रदाय के झगड़े, अलगाव में उलझे रहेंगे या इन गंभीर मुद्दों पर कभी चिंतन भी कर पाएंगे..? इस देश के प्रत्येक मतदाता नागरिक को सोचना चाहिए और अपने अभिव्यक्ति, हृदय के उद्गार व्यक्त करना चाहिए क्यों कि अभी बोलने, अभिव्यक्ति व्यक्ति करने हेतु संविधान के प्रावधानों के अनुसार आजादी है। क्या पता यह आजादी भविष्य में छीन ली जाए..!
भारत में ईडी, सीबीआई, जिला अदालतें, उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय, चुनाव आयोग आदि संस्थाएं स्वतंत्र, निष्पक्ष और निर्भीक तरीके से संचालित होने का प्रावधान है। यदि इनके प्रमुख पदों पर कार्यपालिका या सत्ताधारी दल के मुखिया संसद से कानून बना के अपने पसंद के लोग चुनने लगें, तो यह शुभ संकेत नहीं है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, पोलैंड में 2015-2023 में न्यायपालिका पर हमला हुआ, जहां कानून बदलकर जजों को नियंत्रित किया गया। हंगरी और रोमानिया में पॉपुलिस्ट नेताओं ने न्यायिक स्वतंत्रता खत्म की।
यदि भारत में न्यायिक संस्थाएं, जांच एजेंसियां कमजोर होगी अथवा सत्ताधारी दल के अधीन होगी, तो भ्रष्टाचार, असमानता बढ़ेगी। जनता को जागरूक होना चाहिए, चुनावों में संस्थागत मजबूती को प्राथमिकता दें। सुधार जैसे स्वतंत्र नियुक्ति, पारदर्शिता जरूरी है।
अतः सरकार किसी भी राष्ट्र/देश अथवा राज्य के नाम से होना चाहिए और यही ठीक भी है। यदि सत्ताधारी दल या मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के नाम से सरकार को सरकार में बैठे लोग को संबोधन करने लगे तो इससे अहंकार उत्पन्न होगा और यह अहंकार न स्वयं के लिए ठीक है न जनता जनार्दन के लिए। इस लिए अपना देश भारत है तो आधिकारिक तौर पर भारत सरकार ही गर्व से कहना चाहिए भले ही सरकार में किसी दल की प्रमुख भूमिका हो, यह दल तो आते जाते रहते हैं जबकि भारत सरकार तो स्थिर एक संघीय ढांचा है
निष्कर्षतः, यह विचारधारा लोकतंत्र की मूल अवधारणा से संबंधित मेरे निजीगत विचार हैं। हमारी विचारों से सभी लोग सहमत हो यह जरूरी नहीं है। हमारा मकसद किसी राजनैतिक दल, किसी नेता या आमजनमानस के निजीगत स्वैच्छिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। यदि ऐसा होता है तो यह एक संयोग मात्र होगा, जिसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।
वोट देने वाले जनता को यदि हमारी विचारधारा ठीक लगे तो वह खुद से भी मनन चिंतन करें और जो परम सत्य है उसे अपनाए, आगामी चुनाव में सोच समझ कर वोट करें ताकि भारत का लोकतंत्र मजबूत रहे।
डॉ. अभिषेक कुमार
साहित्यकार व विचारक
मुख्य प्रबंध निदेशक
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