
।। भूमिका- शेष भाग ।।
योग का अर्थ है मिलना, जुड़ना, संयुक्त होना आदि ।
यह त्रिगुणात्मक प्रकृति अलिंग स्वरूप अव्यक्त अवस्था में रहती है ।
जब इस चेतन पुरुष में श्रृष्टि विस्तार का संकल्प होता है तो वह इस माया स्वरूपा प्रकृति का स्वेच्छा से वरण करता है ।
भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है— “हे अर्जुन ! मेरी महत् ब्रह्मरूप प्रकृति अर्थात् मयी माया सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात् गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतन रूप बीज का स्थापन करता हूँ । उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है ।”
{गीता१४।३}
इसी प्रकृति और पुरुष के संयोग के परिणाम स्वरूप ‘महतत्व’ {चित्त} की उत्पत्ति होती है जो इसकी प्रथम सन्तान है । इसके शरीरस्थ स्वरूप को चित्त तथा सृष्टि में इसे ‘महतत्व’ कहा जता है जो लिंग मात्र अवस्था में रहता है । प्रकृति के इन तीन गुणों के तीन धर्म है ।
सत्वगुण का धर्म ‘प्रकाश-ज्ञान’ है, रजोगुण का धर्म ‘क्रिया-गति’ है तथा तमोगुण का धर्म जड़ता ‘स्थिति-सुषुप्ति’ है । इसी चित्त में अहंकार उत्पन्न होता है जिससे वह अपनी स्वतंत्र सत्ता मानने लगता है ।
यही उसकी ‘अस्मिता’ है । इसी अहंकार से मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, तन्मात्राएँ तथा महाभूतों की रचना होती है तथा इन गुणों की परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया स्वरूप अन्य तत्वों का निर्माण होता है ।
प्रकृति तथा पुरुष के संयोग के कारण जिस क्रम से जीव का विकास होता है, उसके उल्टे क्रम से चलने पर अंतिम स्तर पर पहुंचकर साधक को पुनः इन दोनों की भिन्नता का ज्ञान हो जाता है तथा यह भी ज्ञान हो जाता है इस संयोग का कारण अविद्या अथवा अज्ञान है ।
जब इस अज्ञान का आवरण हटता है तभी साधक को अपने वास्तविक स्वरूप उस चेतन आत्मा का ज्ञान होता है । इसके बाद प्रकृति अपने कारण में लय हो जाती है तथा आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है यही उसका ‘कैवल्य’ तथा ‘मोक्ष’ है जिसे प्राप्त कर वह सदा के लिए इस जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है । इसी को योग कहा जाता है ।
गीता में कहा है, “यद्’गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम”
{गीता १५।६}
जीव की उत्पत्ति उस चैतन्य आत्मा से है तथा पुनः उसी को उपलब्ध हो जाना उसकी अंतिम परिणति है, यही उसका गंतव्य स्थान है ।
यह मानव जाति की अमूल्य धरोहर है किंतु साधकों को इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि जिस प्रकार तैरना सीखने के लिए पुस्तकीय ज्ञान काम नहीं आता उसे तो पानी में कूद कर ही प्राप्त किया जाता है उसी प्रकार किसी भी ग्रंथ को पढ़ लेने मात्र से आत्म ज्ञान नहीं होता तथा बिना आत्मज्ञान के मुक्ति नहीं होती । इस ज्ञान को किसी गुरु के मार्गदर्शन में स्वयं ही प्राप्त करना पड़ता है ।
सभी ग्रंथ केवल मार्गदर्शन ही करते हैं, चलना तो स्वयं को ही पड़ेगा । पहुंचने के लिए साधना अवश्यक है ।
इस ग्रंथ में दिखाया गया मार्ग अपने आप में पूर्ण है जो इसके अनुसार बढ़ता है उसको इसका अंतिम फल {मोक्ष} की उपलब्धि अवश्य होती है यह निश्चित है ।
इस ग्रंथ की व्याख्या का उद्देश्य सामान्य जनों में योग साधना के प्रति रुचि जागृत करना है ।।
स्रोत— पतंजलि योग दर्शन
पं. बलराम शरण शुक्ल
हरिद्वार