
( लघुकथा)
गाँव के बीचों-बीच अमित के पिताजी का एक पुराना मकान था। लाल मिट्टी की ईंटों से बना, मोटी लकड़ी की खिड़कियों वाला और आँगन में फैले नीम के पेड़ की छाँव तले खड़ा यह मकान अब बहुत पुराना हो गया था। दीवारों पर गहरी दरारें पड़ चुकी थीं, छत से बरसात में पानी टपकता था और बरामदे के खपरैल में से झांकती धूप धूल की रेखाओं जैसी लगती थी।
पर इसके हर कोने में एक इतिहास साँस ले रहा था। यह वही मकान था, जहाँ दशकों पहले अमित के दादा-दादी ने गृहस्थ जीवन शुरू किया था। इसी आँगन में विवाह के गीत गाए गए थे, इसी बरामदे में रिश्तेदारों ने रात-रातभर बातें की थीं और इसी चौखट पर गाँव भर के मेहमानों का स्वागत हुआ था। यहीं अमित के पिताजी ने अपने बचपन की शरारतें की थीं और यहीं अमित और उसके भाई-बहन भी खेलते-कूदते बड़े हुए थे। यह मकान ईंट और गारे का ढाँचा नहीं था, बल्कि परिवार की जड़ों और रिश्तों की गवाही देता हुआ जीवित धरोहर था।
बरसों बाद अमित जब शहर से गाँव लौटा तो चौखट पर कदम रखते ही उसकी आँखें नम हो गईं। दीवारों पर टँगी पुरानी तस्वीरें जैसे उससे बातें कर रही थीं। दादा जी का कठोर पर दयालु चेहरा, दादी की ममता से भरी मुस्कान, माँ का सुहागिन रूप। आँगन में खड़ा नीम का पेड़ अब और भी विशाल हो चुका था। उसकी छाँव में बैठते ही उसे याद आया कि कैसे गर्मियों में दादी वहीं चारपाई डालकर उन्हें कहानियाँ सुनाती थीं। रसोई से मिट्टी और लकड़ी के धुएँ की मिली-जुली गंध आ रही थी, जिसमें उसे माँ की रोटियों का स्वाद महसूस हुआ,
लेकिन हकीकत बदल चुकी थी। दीवारों का प्लास्टर जगह-जगह झड़ चुका था। लकड़ी के दरवाज़े चरमराकर बंद होते थे। छत इतनी जर्जर हो चुकी थी कि सूरज की किरणें सीधे भीतर झाँक जाती थीं। मकान मानो थक चुका था, जैसे वर्षों से अपने मालिकों का इंतज़ार कर रहा हो।
इसी बीच परिवार के सभी सदस्य—भाई, बहन और रिश्तेदार इकट्ठे हुए। चर्चा चली कि यह मकान अब रहन-सहन योग्य नहीं रहा। किसी ने कहा – *“इसे बेच देते हैं, पैसे बाँट लेंगे। अब तो हम सब शहरों में रहते हैं, गाँव आना भी मुश्किल है।”* दूसरा बोला – “हाँ, यहाँ रहने वाला तो कोई नहीं, बेकार पड़ा है। बेच देंगे तो अच्छा दाम मिलेगा।”
सब धीरे-धीरे सहमत होते दिखे, लेकिन अमित चुपचाप आँगन में नीम के पेड़ के नीचे खड़ा रहा। उसकी आँखें कभी दीवारों की दरारों को देखतीं, कभी छत से छनती धूप को। उसने धीमी, काँपती आवाज़ में कहा – “ये सिर्फ़ मकान नहीं है… ये हमारी पहचान है। यहाँ दादी की लोरियाँ गूँजती थीं, पिताजी की ठहाकों की गूँज है, माँ की पुकार अब भी सुनाई देती है। अगर इसे बेच दिया, तो हम सिर्फ़ ईंट-पत्थर नहीं खोएँगे, हम अपनी जड़ें खो देंगे।”
उसके शब्दों में इतना दर्द था कि सब चुप हो गए। एक-एक कर सबकी आँखों के सामने अपने बचपन की तस्वीरें घूमने लगीं—बरामदे में बैठकर दादी की कहानियाँ सुनना, त्योहारों पर आँगन में सजने वाले दीयों की कतारें, नीम के नीचे भाई-बहनों के खेल। दीवारें जैसे उन सबकी हँसी-खुशी की गवाह थीं।
धीरे-धीरे सबकी आँखों में नमी उतर आई।
छोटे भाई ने आगे बढ़कर अमित के कंधे पर हाथ रखा और बोला – “भैया, तुम सही कह रहे हो। इसे बेचेंगे नहीं। चाहे हमें कितना ही खर्च क्यों न करना पड़े, मिलकर इसकी मरम्मत करेंगे। यह मकान हमारे बच्चों को भी हमारी कहानी सुनाएगा।”
उस क्षण मानो पूरे परिवार के दिल एक साथ धड़क उठे और निर्णय लिया कि:
👉 इस पुस्तैनी मकान को हम नहीं बेचेंगे।
👉 इसकी मरम्मत कर अगली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित किया जाएगा।
👉 यह मकान सिर्फ़ दीवारों और छत का ढाँचा नहीं है, बल्कि हमारी जड़ों, हमारी यादों और हमारे संस्कारों की धरोहर है।
👉 पैसा कभी भी रिश्तों और स्मृतियों की जगह नहीं ले सकता।
कुछ महीनों में जब मकान की मरम्मत हो गई, तो वह फिर से हँसने-बोलने लगा। बच्चे आँगन में खेलते, नीम की छाँव तले परिवार बैठकर बातें करता और रसोई से फिर मिट्टी और रोटियों की वही पुरानी खुशबू उठती।
अमित ने नीम की डाली को छूते हुए मन ही मन कहा – “अब यह पुस्तैनी मकान सिर्फ़ अतीत की याद नहीं, बल्कि हमारी भविष्य की पहचान भी है।”
योगेश गहतोड़ी